Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-9 (भाग-दो)

चौपाल पर नौंवी लघुकथा चौपाल को आरम्‍भ करवाने का गुनाह करने वाले Kapil Shastriकी है।
उन्‍होंने सभी मित्रों की टिप्‍पणियों को ध्‍यान से पढ़ा है। पर उन्‍हें प्रस्‍तुत रचना में कोई परिवर्तन करना आवश्‍यक नहीं लगा। वे इससे संतुष्‍ट हैं।
पिछली पोस्‍टों पर कुछ मित्रों ने यह सुझाव दिया था कि सम्‍पादित रचना के साथ मूल रचना भी लगाई जानी चाहिए। इसलिए मैंने कपिल जी से इस बाबत पूछ ही लिया। इसके लिए उन्‍होंने सहर्ष सहमति दे दी। तो इस बार यह भी एक प्रयोग के नाते कर रहा हूँ।
उन्‍होंने इनबॉक्‍स में मुझे अपनी प्रतिक्रिया भी भेजी है। इसे भी मैं आपके सामने रख रहा हूँ।
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एक खुशनुमा सुबह थी। उसमें सलमान वाला प्रकरण आपने हटा दिया था वो अच्छा लगा। मैं स्वयं वो नहीं हटा पाता। मूल रचना में वही कुछ अलग है। संशोधन में अगर किसी वाक्य से ये पता लगे कि पात्र वहाँ अक्सर जाते रहता है तो पाठकों को समझने में आसानी होगी। हालाँकि जब पत्नी कहती है कि "अब समझ मे आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।" इससे भी अंदाज़ा तो लग जाता है कि वो वहाँ अक्सर जाता रहता है। आपने सभी की टिपण्णी के बहुत तर्कपूर्ण जवाब दिए। किसी भी थ्योरी के अंतर्गत किसी के मन को समझना और किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाना भी एकदम सटीक नहीं बैठता। पति-पत्नी के बीच बहुत ज्यादा पारदर्शिता है ये बात तो एकदम सटीक है और पत्नी बहुत इंटेलिजेंट है इसलिए फौरन इन्टरप्रेट कर लेती है। लेकिन बस के आने का टाइम तो निश्चित है लेकिन पात्र के वहाँ जाने का टाइम कोई निश्चित नहीं है।
सुबह सुबह जब ज़िन्दगी धीरे रफ्तार पकड़ती है तो उस रफ्तार में शामिल व्यक्ति तो इतना ऑब्जर्व नहीं कर पाता जितना एक स्थिर व्यक्ति कर लेता है। उस वक्‍त का ही मजा लिया जा रहा है और एक लघुकथा का जन्म भी हो रहा है। वो क्षण विशेष बहुत महत्वपूर्ण था। जिसे मैं अनुपयोगी समझ रहा था वो उस क्षण कितना उपयोगी हो गया।
*** कपिल शास्‍त्री
अब पहले पढ़ें Kapil Shastri की
असम्‍पादित (यानी मूल) लघुकथा : अनुपयोगी
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पच्चीस जनवरी की एक सुबह। फिजां में ठंडक घुली हुई है। सुबह उठकर मुँह धोकर पोंछ लिया है लेकिन आईने में नहीं देखा है। वैसा ही तो रहेगा। क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मेरी मोटरसाइकिल पोर्च में खड़े-खड़े गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनकी उपयोगिता नहीं लगती। साफ करने का मन नहीं है। ऐसे ही स्टार्ट करके एम्स चौराहे तक ले गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। बस ड्राइवर के लिए ये आखरी स्टॉप है इसलिए बस वापस मोड़ते हुए वो भी ऐसा खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।
सलमान की पान की दुकान नगर निगम वाले रात में ही उठा कर ले गए हैं। कई बार ले गए फिर आ जाती थी लेकिन अब वो एक खटारा मारुति वैन में बैठकर पान,बीड़ी,सिगरेट,गुटका बेच रहा है। उसका काउंटर बहुत आकर्षक था जिसके काँच के नीचे कई देशों की करेंसी बिछी हुई थी। अब रात में वह ये वेन चला कर ले जाएगा। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। खैर जिन्दगी है। शो मस्ट गो ऑन। उसको देखकर भी प्रेरणा मिल रही है। मजदूर काम पर जाने से पहले पोहे जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कुछ लड़कियाँ भी टपरे पर चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों से चल रहा है। एक टांग टेढ़ी हो गयी है।
एक पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएँगे। मैं लड़की की बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ,लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। मेरी नियत खराब नहीं है बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। पहले छोटा भाई चढ़ा। लड़की ने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और बस में चढ़ गई। अनुपयोगी एक क्षण को उपयोगी हो गया है।
गंदा हुआ तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए। बात बस इतनी सी है लेकिन श्रीमतीजी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं, "अब समझ में आया इतना वक्‍त क्यों लग गया।"
अनुपयोगी : सम्‍पादित रचना ( जो चौपाल पर प्रस्‍तुत हुई)
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जनवरी की एक सुबह। फिजां में ठंडक घुली हुई है। मुँह धोकर पोंछ लिया है। आईने में नहीं देखा है। अब वैसा ही तो होगा। रात भर में क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मोटरसाइकिल पोर्च में रखे-रखे गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनको साफ करने की जरूरत नहीं लगती। साफ करने का मन भी नहीं है।
ऐसे ही स्टार्ट करके चौराहे तक आ गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। सिटी बस का यह आखिरी स्टॉप है। इसलिए ड्रायवर बस वापस मोड़ते हुए ऐसे खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।
मजदूर काम पर जाने से पहले टपरे में पोहे-जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी वहाँ चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में सजे-धजे पैदल स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों पर चल रहा है। चौथी टांग टेढ़ी जो है।
पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को स्‍कूल बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएँगे। मैं लड़की के बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ। लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। लड़की सुंदर है। मेरी नीयत में खोट नहीं है। बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। भाई लपककर चढ़ गया। लड़की ठिठकी। उसने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और फिर बस में चढ़ गई। मेरा अनुपयोगी मिरर एक क्षण को उपयोगी हो गया।
धूल थी तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए।
वाकया बस इतना सा ही है। लेकिन श्रीमती जी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं, "अब समझ में आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।"

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