Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है।
यह कथ्‍य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, सो इसे स्‍वीकार करने में हमने बस उतनी ही देर लगाई,जितनी फेसबुक के इनबॉक्‍स से संदेशा जाने में लगती है। लेकिन भाषा,वाक्‍य,वर्तनी, विराम चिन्‍ह तथा कही गई बातों की तार्किकता, उनका एक-दूसरे से सम्‍बन्‍ध विषयक सम्‍पादन की दरकार लग रही थी। हमने इस बाबत रचनाकार से पूछा। फिर उनकी अनुमति से रचना को सम्‍पादित करके वापस भेजा।
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जवाब में उनके साथ इनबॉक्‍स में कुछ इस तरह का संवाद हुआ :
रचनाकार :
जो कहने जा रहा हूँ उसे अपने सम्‍पादन पर टिप्पणी मत समझियेगा। मैं सिर्फ अपनी बात कह रहा हूँ। और आप के मंच के हिसाब से जो सही है उसी के अनुसार ही निर्णय कीजियेगा।
क्या ये संभव है कि जैसे मैंने कहानी लिखी है उसे वैसा ही प्रकाशित किया जाए बिना सम्पादित रूप। ताकि सभी को बिलकुल वही पढ़ने को मिले जो पूरी तरह से मैंने लिखा है। पोस्ट पर ही उसकी कमियों को खुल कर बताया जाए ताकि उसके सम्‍पादन के कारणों पर भी परिचर्चा सभी के सामने हो। इससे दूसरे मेरी तरह थोड़ा बहुत और सामान्य लिखने वालों को सीखने को भी मिलेगा (मुझे भी) और लिखने के लिए प्रोत्साहन भी कि सभी लिख सकते हैं।
राजेश उत्‍साही :
1. जैसा आपने लिखा है, वैसा का वैसा आप अपनी ही वॉल पर प्रकाशित कर सकते हैं। उसे मेरी वॉल पर या चौपाल पर लगाने का क्‍या फायदा। मेरा ख्‍याल है कि आपकी वॉल पर कहीं ज्‍यादा लोग पढ़ेंगे।
2. फेसबुक पर लघुकथा समूहों के साथ पिछले तीन साल से अलग-अलग रूपों में जुड़ा रहा हूँ। उनमें जो अनुभव हुए हैं, उनको ध्‍यान में रखकर अपनी वॉल पर यह गतिविधि आरम्‍भ की है।
3. यह संयोग है कि आपने पहली बार लघुकथा के रूप में लिखकर मुझे भेजा, उसका कथ्‍य मुझे उपयुक्‍त लगा। अन्‍यथा अधिकांशत: रचनाओं को मुझे खेद सहित मना करना पड़ता है। वे सम्‍पादन करने लायक भी नहीं होती हैं।
4. जहाँ तक आपके या रचनाकार के सीखने का मामला है, तो यह सारा अभ्‍यास उसी के लिए है। एक हद तक मैं रचनाकार के साथ चर्चा करके या सम्‍पादन करके उसकी कमियों की ओर इशारा करने की कोशिश करता हूँ। कुछ और बातें चौपाल पर अन्‍य साथी कहते हैं।
5. फिलहाल चौपाल के फार्मेट में असम्‍पादित रचना प्रकाशित करने का प्रावधान नहीं है।
6. वैसे पिछले दिनों एक आधी-अधूरी रचना को बिना सम्‍पादित किए प्रकाशित करके वह प्रयोग भी करके देख लिया। उसका कोई नतीजा नहीं निकला। लोगों ने उस पर टिप्‍पणी करना भी जरूरी नहीं समझा।
7. बहरहाल केवल आपकी मूल रचना ज्‍यों की त्‍यों तो प्रकाशित नहीं हो सकेगी। हाँ, यह जरूर हो सकता है कि सम्‍पादित और असम्‍पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों।
8. अब आप जैसा आदेश करें।
एक और बात .... इसे ज्‍यों का त्‍यों प्रकाशित करने के लिए कई सारे लघुकथा समूह खुशी-खुशी स्‍वीकार कर लेंगे।
रचनाकार :
सम्‍पादित और असम्‍पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों। क्‍या यह हो सकता है।
राजेश उत्‍साही :
हाँ, वह हो सकता है। वह मैंने पहले भी किया है।
रचनाकार :
यदि आप को कोई समस्या नहीं है तो ठीक है।
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तो रचनाकार के विशेष आग्रह पर रचना के दोनों रूप यहाँ दिए जा रहे हैं। असम्‍पादित रचना में सिवाय पूर्णविराम चिन्‍ह के पहले आ रहे अतिरिक्‍त स्‍पेश को कम करने के अलावा, एक अनुस्‍वार का सम्‍पादन भी नहीं किया गया है।
जबकि सम्‍पादित रचना को उस हद तक ही सम्‍पादित किया गया है, जो उसके लिए न्‍यूनतम रूप में आवश्‍यक था। वह अब भी और बेहतर हो सकती है। पर यह काम उसके मूल रचनाकार को ही करना होगा। जाहिर है सम्‍पादन मैंने किया है। तो अगर अच्‍छा लगे तो बेशक उसका जिक्र करें, लेकिन उसके कसीदे काढ़ने से बचें।
तो सुधी पाठक पढ़ें। अपेक्षा है कि कथ्‍य और उसके निर्वाह पर विशेष ध्‍यान दें। उनकी चर्चा करें। उसके बाद अन्‍य महत्‍वपूर्ण बातों की।
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बेटर हॉफ : ज्‍यों की त्‍यों यानी असम्‍पादित
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उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वो नई विवाहिता थी, लेकिन जिस सहजता से दोनों पति पत्नी होटल में खाना खाते रिश्तेदारों के बीच भी बाते कर रहे थे लगता था जैसे दोनों की पहचान बहुत पुरानी है।
" ये आखरी मंदिर था ना या अभी और भी मंदिरो में दर्शन बाकि है " वह पहला कौर ख़त्म कर मुस्कराते बोली।
" ओह ! तुम्हे मंदिर जाना नहीं पसंद है क्या " उसने जवाब की जगह मुस्कराते सवाल किया।
" तुम्हे कैसे पता "
" तुम्हारे चेहरे पर लिखा है "।
वो जोर से हंस पड़ी पर सामने ही अपने सासु माँ को देख झेप चुप हो गई। माँ की प्‍लेट में रोटी ख़त्म हो चुकी थी लेकिन वो चुपचाप बैठी थी ससुर जी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने आस पास वेटर को देखने के लिए नजर दौड़ाई वो आवाज देने ही वाली थी कि " क्या हुआ कुछ चाहिए क्या मै बुला देता हु वेटर को "
" नहीं माँ की रोटियां ख़त्म हो गई है वेटर को और लाने के लिए बोल दो "
तभी ससुर जी ने आखरी कौर मुंह में डालते हुए जोर से आवाज लगाई " भाई कब से बोला है रोटियों के लिए अभी तक दी नहीं। बहुत ख़राब सर्विस है आप की। एक भी बनी है वही दे जाओ "। वेटर तुरंत ही एक रोटी रख जाता है। माँ रोटी उठा कर पिता जी की प्‍लेट में रख देती है। वो दोनों अब भी अपने बातो में खोये हुए थे।
" तुम पूजा पाठ करते हो क्या "
" नहीं मै भी ज्यादा नहीं करता लेकिन ये सब विवाह की रस्मे है तो बड़ो का मन रखने के लिए कर लेता हु "
" ओह तब ठीक है, क्योकि अभी हम दोनों को मेरे घर जा कर भी बड़ो का मन रखना है। " वेटर दूसरी रोटी ला मेज पर रख देता है माँ रोटी उठाती है और पहले बेटे और पति के प्लेटो पर नजर डाल फिर अपनी प्‍लेट में रख खाना शुरू करती है लेकिन अब भी उसकी नजर अपन बेटे की प्‍लेट पर थी।
" तुम्हे पता है मै इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सब घर में पहली बेटी है कर इतना कुछ कर डाला "।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करे विवाह में दिखावे के नाम पर , लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है आखरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए। "
यह सुन दोनों एक दूसरे देख मुस्कुराने लगे और दोनों ने अपने प्लेट की रोटी का आखरी टुकड़ा मुंह में डाला। वेटर तुरंत ही एक रोटी उन दोनों के सामने रख चला जाता है। दोनों एक साथ उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाते है , पर मेहँदीवाले हाथ रोटियों तक पहले पहुंच जाते है। उसने रोटी उठाते ही उसके दो हिस्से किये एक अपनी प्‍लेट में रखा दूसरा उसकी। दोनों फिर सहज हो एक दूसरे से बाते करने और खाने में व्यस्त हो गए। लेकिन सामने बैठे लोगो में कोई भी अब सहज न था
बेटर हॉफ : सम्‍पादित
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वे सब होटल में थे।
उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वह नव-विवाहिता थी। वे दोनों खाना खाते हुए बातचीत कर रहे थे।
" ये आखिरी मंदिर था ना। या अभी दर्शन के लिए और भी बाकी हैं?" वह कौर खत्म कर मुस्कराते हुए बोली।
" क्‍यों ! तुम्हें मंदिर जाना पसंद नहीं है क्या?" पति ने मुस्कराते हुए उल्‍टा सवाल किया।
" तुम्हें कैसे पता?" वह थोड़े आश्‍चर्य से बोली।
" तुम्हारे चेहरे पर जो लिखा है।" पति ने कहा।
सुनकर वह जोर से हँस पड़ी। फिर अगले ही पल सामने बैठी सासू माँ से नजरें मिलते ही झेंपकर चुप हो गई। उनकी प्‍लेट में रोटी खत्म हो गई थी, लेकिन वे चुपचाप बैठी थीं। ससुर जी भी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने वेटर को बुलाने के लिए आसपास नजर दौड़ाई। उसे कुछ खोजता हुआ देखकर पति ने पूछा, " क्या हुआ, कुछ चाहिए? "
" हाँ, देखो न माँ जी की प्‍लेट में रोटी खत्म हो गई है। वेटर को और लाने के लिए बोल दो।"
पति बोलता, उसके पहले ही ससुर जी ने आखिरी कौर मुँह में डालने के पहले जोर से आवाज लगाई, "भाई कब से बोला है रोटियों के लिए। बहुत सुस्‍त सर्विस है आपकी।"
वेटर भागा-भागा आया और एक रोटी रखकर चला गया। सासू माँ ने रोटी उठाकर ससुर जी की प्‍लेट में रख दी। ससुर जी फिर से खाने लगे। सासू माँ फिर प्रतीक्षा करने लगीं।
" तुम पूजा-पाठ करते हो क्या?" उसने पति से पूछा।
" नहीं मैं ज्यादा कुछ नहीं करता। लेकिन ये सब विवाह की रस्में हैं, तो बड़ों का मन रखने के लिए कर रहा हूँ।" पति ने धीमे स्‍वर में कहा।
" अरे, अभी तो आपको मेरे मायके चलकर वहाँ के बड़ों का मन भी रखना है।" उसने जोर देकर कहा।
इस बीच वेटर दूसरी रोटी मेज पर रखकर चला गया था। सासू माँ ने रोटी उठाई। फिर एक नजर अपने पति और बेटे की प्‍लेट पर डाली। दोनों की प्‍लेट में अभी रोटी थी। फिर अपनी प्‍लेट में रखकर खाना शुरू कर दिया।
" तुम्हें पता है मैं इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सबने पहली बेटी है कहकर इतना कुछ कर डाला।" वह बोली।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करें। लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है। घर में आखिरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए।" पति बोला।
यह कहते-सुनते दोनों मुस्कराने लगे। दोनों ने अपने प्‍लेट की रोटी का आखिरी टुकड़ा मुँह में डाला। उसी समय वेटर एक और रोटी मेज पर रख गया। दोनों ने एक साथ रोटी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। पर मेहँदीवाला हाथ पहले पहुँच गया। उसने रोटी उठाई। उसके दो हिस्से किए। एक अपनी प्‍लेट में रखा, दूसरा पति की। दोनों फिर उसी सहजता से खाने और बतियाने में व्यस्त हो गए।
लेकिन अब तक सामने बैठे दो लोग असहज हो चले थे।

16/06/2018

लघुकथा चौपाल – 25 (भाग-दो)

प्रस्‍तुत रचना हाल ही में नवलेखन ‘क्षितिज लघुकथा सम्‍मान’ प्राप्‍त करने वाले Kapil Shastri की है।
जब रचना चौपाल पर लगी और टिप्‍पणियाँ नहीं आ रही थीं, तो कपिल जी ने इसे अपनी वॉल पर एक नहीं चार बार साझा किया। क्रमश:10,11 और 14 जून को । 11 जून को पहले सुबह और फिर शाम को। लेकिन अफसोस की बात कि उस पर किसी ने ध्‍यान ही नहीं दिया। केवल निशा व्‍यास जी ही वहाँ पहुँचीं। बहरहाल इस बात का उल्‍लेख इसलिए कि नोटिस नहीं लिए जाने से रचनाकार स्‍वयं कितने बैचेन थे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अंतत: मुझे भी चौपाल पर एक अप्रिय और कठोर टिप्‍पणी लिखनी पड़ी। उसका सकारात्‍मक असर यह हुआ कि इस रचना पर टिप्‍पणियाँ आईं। और अब भी आ रही हैं।
कपिल जी ने हमेशा की तरह सभी प्रतिक्रियाओं का संज्ञान लिया। लेकिन उन्‍होंने प्रस्‍तुत रचना में फिलहाल किसी तरह के बदलाव की जरूरत महसूस नहीं की। शीर्षक के सुझाव भी प्राप्‍त हुए। पर उन्‍होंने पहले सोचा गया शीर्षक ‘न्‍योछावर’ ही उपयुक्‍त पाया।
कपिल जी अपनी रचना में चाहें तो परिमार्जन कर ही सकते हैं। वे इसके लिए स्‍वतंत्र हैं। पर चौपाल पर फिलहाल उनकी ‘न्‍योछावर’ ज्‍यों की त्‍यों प्रस्‍तुत है।
(इससे इतर बात कि पिछले कुछ दिनों से मेरा अनुभव भी यह रहा है कि साझा की जाने वाली पोस्‍टें पता नहीं क्‍यों, बहुत लोगों की नजर में आती नहीं हैं। इसलिए बेहतर यह होता है कि आप उसे कॉपी-पेस्‍ट करें,स्रोत के उल्‍लेख के साथ।)
न्‍योछावर : कपिल शास्‍त्री
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आशुतोष-विमला जी के विवाह की स्‍वर्णजयंती सालगिरह का मौका था। इसी शहर में अलग कॉलोनी में रह रहे साधन-संपन्न बेटे-बहू ने सालगिरह मानने का भव्‍य आयोजन किया था। बिलकुल विवाह की तरह। नई सोच की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका दे दिया गया था। उसमें सब कुछ नया-नया था। परम्‍परागत वरमाला, बन्ना-बन्नी गाना और मेंहदी भी उसमें शामिल थे।
महिलाओं में खासा उत्साह था। वृद्ध दंपत्ति को सुखद आश्चर्य देने के लिए नाते रिश्तेदार तीन चार दिन पहले ही पधार गए थे।
विवाह 1968 में हुआ था। कोरियोग्राफर उसी दौर के चुनिंदा फिल्‍मी गानों पर नृत्य तैयार कर रही थी। रिश्तेदार मधुमेह, जोड़ों के दर्द, उच्च रक्तचाप, थाइरोइड जैसी जीवन के साथ चलने वाली बीमारियों को ताक पर रखकर कोरियोग्राफर के इशारे पर नाच रहे थे। कुछ थे जो मुश्किल स्टेप्स पर उसे पानी पी-पी कर कोस भी रहे थे।
महिलाओं और पुरुषों के प्रत्येक दिन के लिए अलग-अलग ड्रेस कोड निर्धारित थे। सबको एक बार सूंघ कर तसल्ली कर लेने वाले,सख्त अनुशासन में पले-बढ़े दो वफादार कुत्ते भी प्रत्येक गतिविधियों के मूक दर्शक थे।
युवाओं के लिए यह अत्यंत आनन्‍ददायक था। टेंट हाउस के थाली चम्मच गिनवाना और पूरियों के उतरने की महक भी बीते दिनों की बात थी। डिस्पोजेबल प्लेट्स में भोजन आ जा रहा था। एल्युमीनियम फॉयल में लिपटी रोटियाँ थीं। अब्बा का पजामा अपने नए नामकरण प्लाजो के साथ महिलाओं के तन पर सुशोभित था।
सालगिरह के दिन युवा-अधेड़ जोड़ों ने नाचते हुए समाँ बाँध दिया था।
आशुतोष जी से पाँच साल छोटे भाई भी जोश में आ गए। उन्हें नाचता देख, उनकी पत्‍नी पर्स से 200 रुपये का नया नोट निकालकर उनके सिर पर से वार देने से अपने को रोक नहीं सकीं। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से चारों ओर देखा, "किसको दूँ ?"
लेकिन आलीशान होटल के वातानुकूलित हॉल में न्योछावर लेने वाला तो कोई था ही नहीं। झेंपकर उन्‍होंने नोट चुपचाप पर्स में वापस रख लिया।

17/06/2018

लघुकथा चौपाल – 25 (भाग-एक)

प्रस्‍तुत रचना का कथ्‍य बहुत सामान्‍य है। लेकिन उस सामान्‍य में एक छोटे-से अवलोकन ने उसे एक रचना का रूप दे दिया है। लेखक की मूल रचना का यह सम्‍पादित रूप है। लेखक ने जो शीर्षक दिया था, उससे वे स्‍वयं संतुष्‍ट नहीं हैं। इसलिए रचना बिना शीर्षक के ही प्रस्‍तुत है। आप अन्‍य बातों के अलावा आप शीर्षक भी सुझाइए।
बिन शीर्षक : लेखक का नाम बाद में
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आशुतोष-विमला जी के विवाह की स्‍वर्णजयंती सालगिरह का मौका था। इसी शहर में अलग कॉलोनी में रह रहे साधन-संपन्न बेटे-बहू ने सालगिरह मानने का भव्‍य आयोजन किया था। बिलकुल विवाह की तरह। नई सोच की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका दे दिया गया था। उसमें सब कुछ नया-नया था। परम्‍परागत वरमाला, बन्ना-बन्नी गाना और मेंहदी भी उसमें शामिल थे। महिलाओं में खासा उत्साह था। वृद्ध दंपत्ति को सुखद आश्चर्य देने के लिए नाते रिश्तेदार तीन चार दिन पहले ही पधार गए थे।
विवाह 1968 में हुआ था। कोरियोग्राफर उसी दौर के चुनिंदा फिल्‍मी गानों पर नृत्य तैयार कर रही थी। रिश्तेदार मधुमेह, जोड़ों के दर्द, उच्च रक्तचाप, थाइरोइड जैसी जीवन के साथ चलने वाली बीमारियों को ताक पर रखकर कोरियोग्राफर के इशारे पर नाच रहे थे। कुछ थे जो मुश्किल स्टेप्स पर उसे पानी पी पी कर कोस भी रहे थे।
महिलाओं और पुरुषों के प्रत्येक दिन के लिए अलग-अलग ड्रेस कोड निर्धारित थे। सबको एक बार सूंघ कर तसल्ली कर लेने वाले,सख्त अनुशासन में पले-बढ़े दो वफादार कुत्ते भी प्रत्येक गतिविधियों के मूक दर्शक थे।
युवाओं के लिए यह अत्यंत आनंददायक था। टेंट हाउस के थाली चम्मच गिनवाना और पूरियों के उतरने की महक भी बीते दिनों की बात थी। डिस्पोजेबल प्लेट्स में भोजन आ जा रहा था। एल्युमीनियम फॉयल में लिपटी रोटियाँ थीं। अब्बा का पजामा अपने नए नामकरण प्लाजो के साथ महिलाओं के तन पर सुशोभित था।
सालगिरह के दिन युवा-अधेड़ जोड़ों ने नाचते हुए समाँ बाँध दिया था। आशुतोष जी से पाँच साल छोटे भाई भी जोश में आ गए। उन्हें नाचता देख, उनकी पत्‍नी पर्स से 200 रुपये का नया नोट निकालकर उनके सिर पर से वार देने से अपने को रोक नहीं सकीं। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से चारों ओर देखा, 'किसको दूँ ?'
लेकिन आलीशान होटल के वातानुकूलित हॉल में न्योछावर लेने वाला तो कोई था ही नहीं। झेंपकर उन्‍होंने नोट चुपचाप पर्स में वापस रख लिया।

09/06/2018

लघुकथा चौपाल – 24 (भाग-दो)

इसका कथ्‍य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्‍दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्‍तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्‍छी लगी कि इसका सम्‍बन्‍ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्‍पादन किया गया था। और अब रचनाकार का कहना है कि वह इसमें कोई और संशोधन करना भी नहीं चाहता।
यह लघुकथा मृणाल आशुतोष की है। वास्‍तव में इस पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, हुई नहीं। मेरा मानना है कि अमूमन हम उस समस्‍या पर ज्‍यादा चर्चा नहीं करते हैं, या उससे बचने की कोशिश करते हैं, जिसमें किसी न किसी रूप में शामिल होते हैं। कहने को इसका कथ्‍य एक बहुत ही छोटी-सी टिप्‍पणी है, पर यह हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का एक विद्रूप चेहरा है। हम बच्‍चों को वह सब पढ़ा रहे हैं, जिन्‍हें हम स्‍वयं ही अपने जीवन में उतार नहीं पाए हैं।
प्रतिक्रियाओं में कुछ साथियों ने इस बात की ओर इशारा भी किया है। त्रिभाषा फार्मूले की बात भी Arun Danayak जी ने कही है। Somesh Saxena ने अपने सवाल से उन छिपे पहलुओं को खोला है, जो इस लघुकथा के असली निशाने पर हैं। Virender Veer Mehtaजी ने इसके अधूरेपन की ओर ध्‍यान खींचा है। लेकिन मेरी राय में अधूरापन ही इसकी जान है।
और अंतिम क्षणों में आकर अर्चना तिवारी ने इस पर यह महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की है :
भले ही यह लघुकथा साधारण हो, भले ही यह कथनी करनी पर आधारित हो, भले ही रचनाकार ने यह सोचकर इसे ना लिखा हो किन्तु यह एक कटु सत्य कहती है जिसके पक्ष में शायद कुछ लोग ही हों।
आज समाज में जिस तरह से भक्त और ज्ञानी को एक-दूसरे का पर्याय समझा जा रहा है वह ऐसे ही श्लोकों के आदर्शवादी ज्ञान का परिणाम है।
विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
1. यानी जिनके पास विद्या नहीं है वे विनयी नहीं हैं?
2. जो विनयी हैं (इसे आज का भक्तवाद भी कहूँगी) वे कतई किसी बात के पात्र नहीं, योग्य नहीं. यानी हर बात पर हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला ही योग्य है?
3. अब जब ऐसे विनयी होंगे तो उनके पास धन तो होना ही है।
4. जिसके पास ऐसा धन है तो वर्तमान कथित धर्म उसके पक्ष में होगा ही।
5.और जिसके पास धर्म है तो वह परम सुख पाएगा ही।
इस लघुकथा में उपस्थित अध्यापक उन सभी लोगों का प्रतीक है जो इस मानसिकता के हैं कि विद्या को घोटकर पी लेने वाला ही सर्वगुण सम्पन्न है। चाहे उसकी विचारधारा, उसका कृत्य समाज के हित में ना भी हो।
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निश्चित ही अर्चना तिवारी महत्‍वपूर्ण बात कह रही हैं। पर अध्‍यापक अकेले को गरियाने के क्रम में हम यह न भूल जाएँ, कि अध्‍यापक को बनाया किसने, वह किस व्‍यवस्‍था में बना है या कौन बना रहा है। उसका प्रशिक्षण, प्रशिक्षण के तरीके,पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्‍तकें और जिस आधार पर उन्‍हें बनाया गया है, उनका पाठयक्रम और पाठ्यचर्या, आकलन के तरीके भी इसके लिए जिम्‍मेदार हैं।
और सबसे महत्‍वपूर्ण बात कि अंतत: शिक्षा का उद्देश्‍य क्‍या है ?
विद्या : मृणाल आशुतोष
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"
बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्‍लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, " विद्या विनय देती है.... !"


09/06/2018

लघुकथा चौपाल – 24 (भाग-एक)

इसका कथ्‍य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्‍दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्‍तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्‍छी लगी कि इसका सम्‍बन्‍ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्‍पादन किया गया है।
बाकी अब आप बताएँ।
विद्या : लेखक का नाम बाद में
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"

बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्‍लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, ' विद्या विनय देती है.... !'

लघुकथा चौपाल-23 (भाग-2)

आपमें से कईयों को याद होगा कि इसके पहले भाग में चित्रा राणा राघव ने एक टिप्‍पणी करते हुए, मोटापे की समस्‍या पर लम्‍बी टीप लिखी थी। जिसे मैंने सम्‍पादित कर दिया था। दरअसल यह लघुकथा उनकी ही है।
लघुकथा के नए लेखकों में उनका नाम नए और अछूते विषय चुनने में पहचाना-जाने लगा है। बल्कि उससे भी आगे वे जो देखती हैं, उसे लिखती हैं। अपने उस लिखे को वे जबरन लघुकथा में ढालने पर उतारू नहीं रहती हैं। यही बात उनके लेखन में ताजगी बनाए रखती है।
चौपाल पर आने का उनका प्रयास जनवरी से ही आरम्‍भ हो गया था। एक के बाद एक उन्‍होंने मुझे अपनी पाँच-छह रचनाएँ भेजीं। उन सब पर अपनी प्रतिक्रिया से मैंने उन्‍हें अवगत कराया। बहुत विनम्रता के साथ उन्‍होंने मेरी बात सुनी। उस पर सहमति भी जताई। अच्‍छा लगा कि उन्‍होंने मेरी कठोर प्रतिक्रियाओं के बावजूद चौपाल से मुँह नहीं मोड़ा। उसी का नतीजा है कि उनकी यह रचना मैं यहाँ प्रस्‍तुत कर पाया। उनमें गजब की रचनात्‍मक ऊर्जा है। उसका स्‍वागत है। उन्‍हें अभी बहुत लम्‍बा रास्‍ता तय करना है। बहुत-सी बातें समझनी हैं,बहुत-सी सीखनी हैं। बहुत-सी बातों के मोह से बचना है और बहुत-सी बातों से मोह करना है।
रचना पर जो भी टिप्‍पणियाँ आईं, उनका संज्ञान लेकर उन्‍होंने कुछ परिवर्तन किए। परिवर्तित रचना को भी मैंने सम्‍पादित किया है। जिससे उनकी सहमति है।
चित्रा कहती हैं, ‘‘पहले मुझे लगा कि मैं हिंदी लेखन और लघुकथा लेखन में दिख रही विषय शिथिलता को लेकर बहुत कुछ कहूँ। पर लेखक होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी नहीं कि पाठक या समीक्षक को विषय/ समस्याओं की जानकारी चर्चा में दूँ। मैं विभिन्न विषयों पर लिखती रहूँगी। और ऐसा मेरा विश्वास है कि लिखती रही तो अलग या नए विषयों पर पढ़ने वाले जरूर मिलेंगें। मुझे लघुकथा लेखकों से अलग, सामान्य पाठकों की समझने की क्षमता पर और विषय चुनाव को स्वीकार करने की व्यापकता पर कहीं अधिक भरोसा है। मुझे लगता है मैं ‘शीनू’ के संघर्ष को गहनता से व्‍यक्‍त करने में न्याय नहीं कर सकी।’’
इलाज : चित्रा राणा राघव
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शीनू अब कुछ ज्यादा ही शांत होता जा रहा था। उसके ही कहने पर डांस क्लास, स्विमिंग क्लास, स्टेडियम आदि जॉइन भी करवाये, जिन्हें उसने खुद ही छोड़ दिया। अजीब मानसिक अस्थिरता और शारीरिक शिथिलता का शिकार हो रहा था। वह पूरे घर में चिंता का विषय बनता जा रहा था। इलाज के परिणाम न आने पर, माता-पिता की रोक-टोक, डॉक्टर के बताए नियम आदि में वह घुटन महसूस करता। अक्सर कमरे में अकेला रहता। जो भी खाने को दो चुपचाप खा लेता। अपने पसन्दीदा कार्टून, मूवी देखने का भी उसका मन नहीं होता। माँ जितने सवाल करती, स्थिति उतनी ही उलझ जाती। पिता का ध्यान भी उसकी इन सभी गतिविधियों पर था।
पत्‍नी के कहने पर वे शीनू के कमरे में गये। पिता को आया देख, शीनू ने पूछा, “क्या हुआ पापा कुछ काम था ?”
“नहीं बेटा।”
“तो ममा ने फिर कोई शिकायत की आपसे ?”
“नहीं, वो तो सोने की तैयारी कर रही हैं। मुझे एक पार्टी में जाना है। वैसे मेरा भी मन नहीं है, इतनी टेंशन में क्या एन्जॉय करूँगा ! ”
“ टेंशन, कैसी टेंशन ?”
“ बस वही ऑफिस की टेंशन है। छोड़ो, तुम अपना ध्यान रखना। ”
“पापा, अब मैं आपकी टेंशन का कुछ कर भले ही न सकूँ, सुन तो सकता हूँ। आप बताइए।” कहकर उसने पापा को खींचकर अपने बिस्‍तर पर बिठा लिया।
“अरे, बेटा वो मिस्टर बॉस हैं न। मेरे काम में हर वक्‍त कमियाँ ही निकालते रहते हैं। अब कल उन्‍हें एक प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट दिखानी है। बस उसकी ही चिंता है। फाइनल रिपोर्ट को उतना समय मैं दे नहीं सका जितना देना था।”
“हाँ पापा कभी-कभी होती है ऐसी चिंता। मुझे भी हो रही है।”
“तुम्‍हें किस बात की चिंता हो रही है ?” पिता ने घबराकर पूछा।
“यही कि आप सबकी मेहनत बेकार न हो जाए। ऊपर से डिस्ट्रेक्टशन!”
“कौन सी मेहनत, कैसा डिस्ट्रेक्टशन ?”
“वही, जिसका इलाज आप करवा रहे हैं, मेरा मोटापा। डॉक्टर अंकल, ममा आप सब इतनी मेहनत कर रहे हैं। और वो सारी मेहनत बर्बाद करना चाहता है ?”
“वो कौन ?”
“जंक फ़ूड। टी.वी. चालू करो तो वही। स्टेडियम, स्कूल, मॉल, हर जगह उसी के ठेले। दुकानों पर सजा खाना और खाने वालों की भीड़। सब आप सबकी मेहनत बरबाद करना चाहते हैं। मैं बहुत कोशिश करता हूँ कि उधर ध्यान ही न जाए, पर यहाँ-वहाँ पोस्टर्स में वह खाना कितना खूबसूरत दिखता है।’’ शीनू बोला।
“ओह यह बात है।” पिता ने राहत की साँस ली। “पर तुम तो उनके बहकावे में नहीं आ रहे हो न?”
“अभी तक तो नहीं।” शीनू ने कहा।
“…और आगे भी नहीं। चलो पार्टी कैंसिल। अब हम दोनों तुम्हारा डाइट खाना खाते हैं।” पिता ने ढाढस बँधाया।
“पापा मैं भी एक बात कहूँ ?” शीनू बोला।
“ हाँ, हाँ कहो।”
“आपने रिपोर्ट बनाने में पूरी मेहनत की है न? ” शीनू ने पूछा।
“ हाँ, बिलकुल की है।”
“ तो फिर आपको भी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।” शीनू ने मुस्‍कराते हुए कहा।
“ अरे मेरा शीनू तो सचमुच बड़ा हो गया है।” कहते हुए पिता ने उसे गले से लगा लिया।

लघुकथा चौपाल -23 (भाग-एक)

अपील का असर हुआ। और कई नए साथियों ने अपनी रचनाएँ चौपाल के लिए भेजी हैं। इस रचना के रचनाकार ने अपनी तीन रचनाएँ भेजीं। उनमें से एक का परिमार्जित और सम्‍पादित रूप रचनाकार की सहमति से यहाँ प्रस्‍तुत है। इसमें एक अछूते विषय को पकड़ने की कोशिश की गई है।
बाकी बातें आप सब बताएँगे ही।
इलाज : लेखक का नाम बाद में
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शीनू अब कुछ ज्यादा ही शांत होता जा रहा था। मन बहलाने के लिए डांस क्लास, स्विमिंग क्लास, स्टेडियम आदि ज्‍वॉइन भी करवाये। पर उसकी मानसिक स्थिति और ज्यादा अस्थिर हो जाने के कारण सब छुड़ाना पड़ा। वह अक्सर कमरे में अकेला रहता। जो भी खाने को दो चुपचाप खा लेता। माँ जितने सवाल करती, स्थिति उतनी ही उलझ जाती। उसने कई बार शीनू को अकेले रोते हुए पाया। पिता का ध्यान सभी गतिविधियों पर था। माँ के कहने पर पिता शीनू के कमरे में गया।
पिता को आया देख, शीनू ने पूछा, “क्या हुआ पापा कुछ काम था ?”
“नहीं बेटा।”
“तो ममा ने फिर कोई शिकायत की आपसे ?”
“नहीं, वो सो गयीं, मुझे नींद नहीं आ रही थी। अगर तुम्हें नींद आ रही है तो मैं चला जाता हूँ।”
“नहीं, मुझे भी नींद कहाँ आ रही है। आप बैठिए। पर आपको नींद क्‍यों नहीं आ रही?”
“बस ऑफिस की कुछ टेंशन हैं। छोड़ो भी। पर तुम अब तक क्‍यों नहीं सोये?”
“पापा, अब मैं इतना छोटा भी नहीं हूँ। आपकी टेंशन का कुछ कर भले ही न सकूँ, सुन तो सकता हूँ। आप बताइए।” कहकर उसने पापा को खींचकर अपने बिस्‍तर पर बिठा लिया।
“अरे बेटा वो मिस्टर शर्मा हैं न, मेरे बॉस। मेरे काम में हर वक्‍त कमियाँ ही निकालते रहते हैं। अब कल उन्‍हें एक प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट दिखानी है। कहीं ऐसा न हो वे मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर दें। बस उसकी ही चिंता है।”
“हाँ पापा कभी-कभी होती है ऐसी चिंता। मुझे भी हो रही है।”
“तुम्‍हें किस बात की चिंता हो रही है ?” पिता ने घबराकर पूछा।
“यही कि आप सबकी मेहनत बेकार न हो जाए ?”
“कौन सी मेहनत ?”
“वही, जिसका आप इलाज करवा रहे हैं, मेरा मोटापा। डॉक्टर अंकल, ममा आप सब इतनी मेहनत कर रहे हैं। और वो सारी मेहनत बर्बाद करना चाहता है ?”
“वो कौन ?”
“जंक फ़ूड। टी.वी चालू करो तो वही। स्टेडियम, स्कूल, मॉल, हर जगह उसी के ठेले। सारी दुकानों पर सजा खाना और खाने वालों की भीड़। सब आप सबकी मेहनत बरबाद करना चाहते हैं।’’ शीनू बोला।
“ओह यह बात है।” पिता ने राहत की साँस ली। “पर तुम तो उनके बहकावे में नहीं आ रहे हो न?”
“नहीं,बिलकुल नहीं ?” शीनू ने कहा।
“तो फिर तो चिंता की कोई बात नहीं। तुम जरूर सफल होओगे।” पिता ने ढाढस बँधाया।
“पापा मैं भी एक बात कहूँ ?” शीनू बोला।
“ हाँ, हाँ कहो।”
“आपने रिपोर्ट बनाने में पूरी मेहनत की है न।” शीनू ने पूछा।
“ हाँ, बिलकुल की है।”
“ तो फिर आपको भी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।” शीनू ने मुस्‍कराते हुए कहा।
“ अरे मेरा शीनू तो सचमुच बड़ा हो गया है।” कहते हुए पिता ने उसे गले से लगा लिया।


26/05/2018

लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है। यह कथ्‍य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, स...