प्रस्तुत लघुकथा ‘सजा’ डॉ.कुमारसम्भव जोशी की है।
लघुकथा पर उल्लेखनीय टिप्पणियाँ और सवाल आए हैं। इन सबका संज्ञान लेखक ने लिया है। फिलहाल वे अपनी लघुकथा पर काम कर रहे हैं। उसका संशोधित और परिमार्जित रूप लेकर वे जल्द ही हाजिर होंगे।
लघुकथा प्रस्तुत करते हुए मैंने कहा था कि अपनी खूबियों के बावजूद इसमें ऐसा कुछ भी है, जिससे फिलवक्त तो मैं सहमत नहीं हूँ। वास्तव में अब भी नहीं हूँ।
यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि एक स्त्री का अस्तित्व और अस्मिता किसी भी रिश्ते से कहीं अधिक होती है, होनी ही चाहिए। अगर उसे क्षति पहुँचती है तो वह किसी भी रूप में क्षम्य नहीं हो सकता है, न होना चाहिए। और न ही इसकी मात्रा किसी रिश्ते विशेष से तय होनी चाहिए। Poonam Dogra Poornima Sharma तथा Anil Jaiswal ने इस बात को अपने ढंग से रेखांकित किया है।
उम्मीद है कि कुमारसम्भव जोशी भी खासतौर पर इस बिन्दु पर ध्यान देंगे।
लघुकथा पर उल्लेखनीय टिप्पणियाँ और सवाल आए हैं। इन सबका संज्ञान लेखक ने लिया है। इसमें यह एक महत्वपूर्ण सवाल उभरा था कि एक स्त्री का अस्तित्व और अस्मिता किसी भी रिश्ते से कहीं अधिक होती है, होनी ही चाहिए। अगर उसे क्षति पहुँचती है तो वह किसी भी रूप में क्षम्य नहीं हो सकता है, न होना चाहिए। और न ही इसकी मात्रा किसी रिश्ते विशेष से तय होनी चाहिए। Poonam Dogra Poornima Sharma तथा Anil Jaiswal ने इस बात को अपने ढंग से रेखांकित किया था।
उन्होंने इसके आधार पर अपनी संशोधित और परिमार्जित लघुकथा का एक रूप पोस्ट संख्या 31 पर टिप्पणी में प्रकाशित किया है। इसी का एक और सम्पादित रूप लेखक की सहमति और अनुमति के साथ यहाँ प्रस्तुत है।
उन्होंने लघुकथा के वर्तमान स्वरूप में ही इस सवाल से जूझने की कोशिश की है। एक रचना में तत्कालिक रूप से शायद इसका एक तोड़ निकल भी आया है। वह पाठक को कुछ सुकून जरूर देता है, किन्तु वह कथ्य के साथ न्याय करता प्रतीत नहीं होता है। दरअसल इस कथ्य को नए रूप में प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है।
बहरहाल आप भी अपनी राय बताएँ, ताकि लेखक को कुछ दिशा मिले।
सज़ा : डॉ. कुमारसम्भव जोशी : तीसरा रूप
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"माँ तुम केस वापस लेने को कैसे कह सकती हो? उस लड़के ने मेरे साथ बदतमीज़ी करने की कोशिश की फिर भी?" कोर्टरूम के बाहर लतिका गुस्से में माँ पर बरस रही थी.
"हाँ." अरुणा ने सिर उठाये बिना ही संक्षिप्त सा जवाब दिया.
"मगर क्यों?" लतिका के चेहरे पर क्षोभ के साथ हज़ारों सवाल तैर गए.
तभी अपने वक़ील से केस वापस लिए जाने की ख़बर पा कर सुधांशु वहाँ आ पहुँचा.
तभी अपने वक़ील से केस वापस लिए जाने की ख़बर पा कर सुधांशु वहाँ आ पहुँचा.
"मैं...मैं...बहुत शर्मिंदा हूँ. मैं नशे में बहक गया था. और उस हालत में लतिका को अकेला देखकर...," उसकी आँखों में पश्चात्ताप झलक रहा था.
लेकिन अरुणा की आँखों में गुस्सा था.
लेकिन अरुणा की आँखों में गुस्सा था.
"मेरी इस हरकत के बावज़ूद आप मुझे माफ़ करके केस वापस ले रही हैं." उसने हाथ जोड़ते हुए आगे कहा.
"शायद क़ानून की सज़ा से ये माफ़ी की सज़ा ज़्यादा बड़ी होगी," अरुणा ने कहा.
"ये सज़ा कहाँ हुई माँ! जब कुछ साल जेल में सड़ेगा, कॅरियर ख़राब हो जाएगा, लोग थू थू करेंगे, तो वह इसकी सज़ा होगी. और तुम कह रही हो कि...," लतिका वह पल याद कर उबल पड़ी.
"ऑबेराय साहब की पत्नी गर्भाशय की किसी गम्भीर बीमारी के कारण कभी माँ नहीं बन सकती थी." बेटी की बात को नज़रअंदाज सा करते अरुणा ने कहा.
सन्दर्भहीन बेतुकी सी बात सुनकर दोनों अनसमझे भाव से उसके मुँह की तरफ ताकने लगे.
"ऐसे में ऑबेराय ने सेरोगेसी का सहारा लिया." माँ ने गला साफ करते हुए कहना शुरू किया.
"नौ महीने किसी औरत ने ऑबेराय के अंश को पेट में रखा." लतिका और सुधांशु अवाक् थे.
"जैविक रूप से तो उस औरत का उस बच्चे से कोई रिश्ता नहीं था, मगर कोख के रिश्ते से वह उसकी माँ हुई और 'लतिका' उसकी..."
अरुणा का वाक्य पूरा होता उससे पहले ही सुधांशु ऑबेराय चीख पड़ा, "नहीं... मुझे माफ़ मत करो. मुझे सज़ा दो. मैं माफ़ी के क़ाबिल नहीं, मुझे सज़ा दो."
अरुणा का वाक्य पूरा होता उससे पहले ही सुधांशु ऑबेराय चीख पड़ा, "नहीं... मुझे माफ़ मत करो. मुझे सज़ा दो. मैं माफ़ी के क़ाबिल नहीं, मुझे सज़ा दो."
पर्दा गिरने के साथ तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी.
"आज तो आपके अभिनय ने नाटक जीवंत कर दिया," एक दर्शक ने आगे बढ़कर बधाई दी, " लेकिन अंत...," दर्शक अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया.
"जी धन्यवाद! ये निर्देशक की कथा थी. अगर मेरी कथा होती तो अंत कुछ और ही होता." अरुणा ने कड़वाहट से जवाब दिया.
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