Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-17 (भाग-दो)

जैसा कि मैंने कहा था यह लघुकथा एक ऐसे रचनाकार की है, जो लघुकथा में जाना-पहचाना है। उसने यह रचना अपनी ही वॉल पर लगाई थी। लगाते ही हमारी नजर में आई। हमें लगा कि इसे तो चौपाल पर होना चाहिए।
तो रचनाकार हैं अर्चना तिवारी
दरअसल इसे उन्‍होंने पहले एक संस्‍मरण के रूप में लिखा था। बाद में उसे संपादित करके लघुकथा में परिवर्तित करने की कोशिश की। रचना पर आई टिप्‍पणियों को देखकर उन्‍हें लगता है कि वे इसमें सफल नहीं हो पाईं। उनका अवलोकन है कि Rashmi Pranay Wagle ही उनकी रचना का मर्म पकड़ पाई हैं।
दरअसल यह हमेशा होता है रचनाकार जो कहना चाहता है, वह कई बार उसमें छुपा होता है, साफ-साफ लिखा नहीं होता। उसे पाठक को ही ढूँढ़ना होता है। इसे ढूँढ़ने में पाठक का नजरिया और संवेदना बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
अर्चना ने अपनी रचना में कुछ परिवर्तन किए हैं और शीर्षक ‘ख़लिश’ भी बदला है।
फाँस : अर्चना तिवारी
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दोपहर थी लेकिन आकाश में छाए बादल भोर का आभास करा रहे थे। मैं खिड़की के पास बैठी रेडियो के गीतों के साथ इस मोहक नज़ारे का आनंद ले रही थी। तभी मेरी निगाह बाउंड्री के बाहर एक युवक पर पड़ी। वह एड़ियाँ उचकाकर गमले से पौधे की टहनी तोड़ने की कोशिश कर रहा था। अक्सर लोग छोटे पौधों की टहनी कलम के लिए लेते ही रहते हैं। लेकिन मेरे देखते ही देखते उसने गमले से पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। उखाड़ने के झटके से धक्‍का लगने से उस गमले के साथ दो और गमले भरभरा कर नीचे आ गिरे।
“अरे कलम चाहिए थी तो ले लेते। तुमने तो पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। और..और ये गमले भी गिरा दिए!’’ मैं उस पर फट पड़ी।
“दीदी हम जाने नहीं थे। हमें लगा गमले में कई पौधे हैं...गलती हो गई...हम माफ़ी मांगते हैं।’’ वह हाथ जोड़ने लगा। उसके मुँह से शब्द अटक-अटक कर निकल रहे थे। तब तक मेरी चिल्लाहट सुन कर भाई भी बाहर आ गया। गली से गुजर रहे लोग भी रुक कर देखने लगे। देखते-देखते दस-बारह लोग इकठ्ठा हो गए।
“चोरी कर रहे थे?” भाई ने घुड़कते हुए उसकी कमीज का कालर पकड़ लिया।
“नहीं, हम चोर नहीं हैं हमारा विश्वास कीजिए, हमसे पहली बार ऐसा हुआ।’’ यह कहते भर में उसकी कनपटी से पसीना बहने लगा। उसकी पतलून पैरों के काँपने की गवाही दे रही थी।
मैंने देखा वह सामान्‍य सा युवक साधारण किन्तु साफ़-सुथरे कपड़े पहने था। पहनावे से किसी दूसरे अंचल का लग रहा था।
“अरे छोड़ो, जाने दो उसे।’’ दरवाजे तक आ गए पिता जी ने भाई को आदेश देने जैसे स्‍वर में कहा।
भाई ने युवक का कालर छोड़ दिया। युवक पिता जी को देखते हुए हाथ जोड़ कर चला गया। गली में जमा हुए लोग भी चले गए। मैं भी अंदर आ गई। बाहर का नज़ारा अभी भी मोहक था। रेडियो पर गीत भी बज रहा था। लेकिन मन में जैसे कुछ चुभ रहा था।

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