Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल – 8 (भाग-एक)

हमेशा लकीर के फकीर हो के चलना अपना फितरत में नहीं है। इसलिए साप्‍ताहिक चौपाल के नियम को तोड़ते हुए यह चौपाल लगा रहा हूँ। वैसे भी यह सामान्‍य चौपाल से कुछ अलग है। यहाँ एक साथ दो रचनाएँ प्रस्‍तुत हैं। इन दोनों का विषय और कथ्‍य लगभग एक-सा है, लेकिन निर्वाह या ट्रीटमेंट अलग है। रचनाओं को पढ़ने से पहले यह नोट पढ़ लें।
पाठकों के लिए नोट :
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एक रचना लगभग दस दिन पहले इनबॉक्‍स में आई। वह चौपाल के लिए नहीं थी। लेखक को उस पर मेरी राय चाहिए थी। मैंने उसे देखकर कहा, इसमें कुछ नहीं बन रहा। रचनाकार से थोड़ी चर्चा के बाद मैंने सलाह दी कि कुछ दिन के लिए इसे भूल जाओ। रचनाकार ने मेरी बात मान ली। दो-तीन दिन पहले उसका संशोधित रूप फिर से आया। जाहिर है उनके दिमाग में रचना खदकती रही होगी। मैं उस पर कुछ प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करता, उससे पहले ही उनका संदेश आ गया, कि यह तो मुझे भी अब बकवास लग रही है। अब मैं इस पर कोई काम नहीं करूँगा। लेकिन मुझे अब उस रचना में एक संभावना दिखाई दे रही थी। मैंने अपनी तरफ से सम्‍पादन करके उसे वापस भेजा। और थोड़े से प्रयासों के बाद अंतत: एक ठीक-ठाक रचना बन गई।
इसी बीच एक अन्‍य रचनाकार की रचना इनबाक्‍स में आ गई। यह भी चौपाल के लिए नहीं थी। केवल मेरी प्रतिक्रिया के लिए थी। मैंने उस पर लेखक को सुझाव-सलाह दी। लेखक ने इस पर काम किया। वह भी ठीक-ठाक बन गई।
संयोग से इसका कथ्‍य भी उक्‍त रचना के आसपास का ही था। मेरे मन में ख्‍याल आया कि क्‍यों न इन दोनों को एक साथ चौपाल पर लगाया जाए। मैंने दोनों रचनाकारों से इस विचार को साझा किया। उनकी राय पूछी। दोनों ने सहर्ष अपनी सहमति दी। दोनों ही रचनाकारों को यह नहीं मालूम है, कि दूसरी रचना किसकी है।
अब आप दोनों रचनाओं को पढ़ें। मेरी अपेक्षा है कि रचनाओं की तुलना नहीं, बल्कि विमर्श इस बात पर हो कि दोनों में एक ही कथ्‍य का निर्वाह किसी तरह किया गया है। हॉं, दोनों रचनाओं को स्‍वंतत्र रूप से लघुकथा की कसौटी पर भी बेशक आप कसें।
इन रचनाओं के लेखकों से :
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चौपाल में अब तक यह नियम रहा है कि जिस रचनाकार की रचना प्रस्‍तुत हो रही है, वह उस पर आ रही किसी प्रतिक्रिया पर कोई जवाब न दे। न ही उस विमर्श में भाग ले। हाँ, नजर जरूर रखे। पर यहाँ इस प्रयोग में दोनों रचनाकारों से मेरा आग्रह है कि वे एक पाठक की हैसियत से इन पर होने वाले विमर्श में भाग लें। वे यह मान लें कि वे इनके रचनाकार नहीं हैं। ध्‍यान रहे कि उन्‍हें किसी भी प्रतिक्रिया पर लेखक की हैसियत से कोई जवाब नहीं देना है। अगर ऐसा करना उन्‍हें मुश्किल लगे तो बेहतर है कि विमर्श में शामिल न हों।
भीड़ : लेखक का नाम बाद में उजागर होगा
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दोनों रोज ऑफिस जाते हुए उस चौराहे से गुजरते थे।
वहाँ भीड़ भी रोज मिलती थी। पर आज कुछ ज्यादा ही थी। रुक जाने को ललचाने वाली भीड़। लोग घेरा-सा बनाए खड़े थे।
"चल देखते हैं क्या हुआ ?" पहला बोला।
"हाँ, आखिर इतनी भीड़ क्यों जमा है?" दूसरा बोला।
"नंगी है।"
"ओह, बहुत बुरी हालत है।"
"दुर्गति हो गई है।"
"लगता है रात से ऐसे ही पड़ी है।" भीड़ में फुसफुसाहट जारी थी।
"लगता है रेप हुआ है।"
"अबे आ, देखते हैं।" एक अजीब सा स्वाद पहले की आँखों में पसर गया।
दोनों भीड़ में घुसकर आगे जाकर देखने की जद्दोजहद में लग गए। पहला किसी तरह घुस गया। लेकिन कुछ ही मिनटों में मुँह बनाए वापस लौट भी आया।
दूसरे ने उत्‍सुकता से पूछा, "क्या है? "
"कुछ नहीं यार। चल…लेट हो जाएँगे।" पहला दूसरे को खींचते हुए बोला।
"पर वहाँ है क्‍या ?"
"बोला न, कुछ नहीं....कोई भिखारी था। मर गया।"
और दोनों रोज की तरह अपने ऑफिस के रास्‍ते पर बढ़ गए।
पवित्र पापी : लेखक का नाम बाद में उजागर होगा
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मोबाइल पर सन्देश चमका। कोई वीडियो था। साथ ही एक नोट था, “इसे अकेले में देखें।“
सन्देश देखते ही मेरी बाँछें खिल गईं। मैंने वीडियो चालू किया।
“पलट इसे, चेहरा देखना है!” एक अकड़दार आवाज कड़की। उसके साथ ही दिखा कि एक औरत औंधे मुँह जमीन पर पड़ी है। उसके शरीर पर कपड़े न के बराबर थे।
“औरत है साहेब, कोई चादर-वादर ऊपर डाल देते तो पलटते!” यह दूसरी आवाज थी।
“अरे पलट ना...वह मर चुकी है! ” आवाज दोबारा कड़की।
“फिर भी साहेब...है तो औरत ही न... ! ”
“अरे बेवकूफ! पलट ना...पता तो चले कि यह है कौन....! ”
कुछ हाथ औरत को सीधा करने लगे। मन हुआ कि वीडियो बंद कर दूँ। लेकिन फिर अजीब सी उत्सुकता ने ऐसा करने से रोक दिया। एकाएक वीडियो ब्लर होने लगा। मैं खिसिया गया। कुछ देर बाद वीडियो साफ हुआ तो उत्सुकता फिर बढ़ी।
औरत पलट चुकी थी। कैमरा उसके चेहरे को जूम करता हुआ आहिस्ता-आहिस्ता नीचे आने लगा। लेकिन कुछ ही क्षणों बाद वीडियो समाप्त हो गया। मैं झुंझला उठा। झुंझुलाहट में अकस्मात मोबाइल का कैमरा ऑन होकर सेल्‍फी मोड में आ गया। उसमें अपना चेहरा देखते हुए मैं चौंक गया। कुरूप और वीभत्‍स। ऐसा लगा जैसे वह मैं नहीं हूँ। इस कोई और को देखते हुए मुझे खुद पर ही घिन हो आई।

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