Tuesday, June 19, 2018

लघुकथाचौपाल -20 (भाग-दो)

भाग-एक में प्रस्‍तुत कथ्‍यांश Nayana-Arati Kanitkar का था।
चौपाल के एक स्‍टेटस पर अर्चना तिवारी ने अपनी टिप्‍पणी में चौपाल के लिए कई सुझाव दिए थे। उनमें एक यह भी था कि ‘लेखकों से उनकी वे रचना बुलवाई जाएँ, जो फोल्‍डर बन्‍द हैं। हमारी उन फोल्डर बन्‍द रचनाओं को बुलवाया जाए जो लघुकथा बने बगैर रह गई हैं। इस पर चर्चा करने का आशय लघुकथा बनाना नहीं बल्कि उस बिन्‍दु पर विमर्श किया जाना चाहिए।’ हालांकि मैंने उनके इस सुझाव को ध्‍यान में रखते ऐसी रचनाएँ भेजने के लिए कोई अपील नहीं की थी। पर संयोग से उसी दौरान नयना जी की यह रचना या कथ्‍यांश चौपाल के लिए आया।
और जैसा कि मैंने उसे प्रस्‍तुत करते हुए लिखा था, ‘जिसने भी लिखा है, चौपाल के लिए भेजा है। उसे लगता है कि इससे लघुकथा बन सकती है। पर उसे सूझ नहीं रहा है कि अन्त कैसे किया जाए। मेरे सम्‍पादक मन में सवाल भी थे और दो-तीन सुझाव भी। पर इस बार मैंने लेखक से इस बारे में बातचीत नहीं की। न ही अपनी तरफ से कोई सुझाव दिया। सोचा, इस बार यह काम औरों को सौंप दिया जाए। इस कथ्‍यांश में मैंने लेखक की सहमति से केवल एक-दो छोटे मोटे परिर्वतन किए हैं। जिन्‍हें अनदेखा किया जा सकता है। बाकी लेखक का ही मूल है। आप लेखक से सवाल भी पूछें। लेखक को सुझाव भी दें। जाहिर है सवालों का जवाब देने के लिए फिलहाल लेखक मौजूद नहीं होगा। तो आप में से जिस किसी के पास भी उस सवाल का जवाब हो, वह स्‍वयं को इसका लेखक मानकर दे सकता है।’
लेकिन खेद है कि मेरी इस टिप्‍पणी का चौपाल के लेखक-पाठकों पर कोई खास असर हुआ नहीं। सुमित चौधरी Nisha Vyas Sheikh Shahzad Usmani और Janki Wahie के अलावा किसी अन्‍य ने उस पर कोई टिप्‍पणी ही नहीं की। बल्कि मैंने बीच में आकर मैंने स्‍वयं इस बारे में एक शिकायती टिप्‍पणी वहाँ दर्ज की।
खुद नयना जी की भी इनबॉक्‍स में यही शिकायत रही। उन्‍हें सुमित जी के सुझाव से थोड़ी मदद मिली थी। पर उन्‍हें अर्चना जी, Kapil Shastri जी Arun Kumar Gupta जी के सुझावों का इंतजार भी था। अर्चना जी और अरुण जी तो पोस्‍ट पर आए भी। पर उन्‍होंने कोई टिप्‍पणी नहीं की। कपिल जी की नजर शायद इस पोस्‍ट पर पढ़ी ही नहीं। (यह शिकायत नहीं,एक तथ्‍यात्‍मक जानकारी है।)
इतना ही नहीं नयना जी इस बात से इतनी निराश हो गईं कि उन्‍होंने मुझसे कहा, ‘मेरी रचना पर सुझाव बहुत कम आए। आप भी सुझाव देने से कतरा गए। पता नहीं क्यों?’ बहरहाल इस ‘क्‍यों’ का जवाब मैंने उन्‍हें इनबॉक्‍स में दिया है।
नयना जी की अपनी कुछ व्‍यस्‍तता थी। इसलिए प्राप्‍त प्रतिक्रियाओं के आधार पर अपनी परिमार्जित रचना समय पर नहीं भेज पाईं। इस हेतु उन्‍होंने सोमवार तक का समय माँगा था। उनसे रचना प्राप्‍त हो गई थी। लेकिन फिर मैं उसे नहीं देख पाया।
उन्‍होंने अन्‍तत: जो रचना बनाई, उसका सम्‍पादित रूप, नयना जी की सहमति से यहाँ प्रस्‍तुत है। मैंने अपने सम्‍पादन में उनके मूल कथ्‍य को बचाए रखने की भरसक कोशिश की है। नयना जी फिलवक्‍त रचना के इस रूप से संतुष्‍ट हैं।
लेकिन मेरा मानना है कि कोई भी रूप अन्तिम नहीं होता, उसमें सुधार और परिमार्जन की हमेशा गुजांइश रहती है। सो इसमें भी होगी और रहेगी।
सुबह की धूप : नयना आरती कानिटकर
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दिन भर काम में खटकर जब वह रात में खुद को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बन्‍द करते ही उसके अन्‍दर का स्व जाग जाता। स्‍व पूछता, " तुम हो कौन ? और तुम्‍हारा है क्या।"
उसका एक ही जवाब होता, "यह तो वक्त ही बताएगा।"
उसे याद आता। वह अपने छोटे से घर की खिड़की के पास हमेशा डेरा डाले रहती। हाथ में स्‍कूल की किताब होती। बाहर के आँगन का सारा नजारा उसका अपना होता। कभी ढेर सारे तोते आ बैठते अमरूद पर। खूब शोर मचाते। कभी-कभी मैना,गौरैयाँ आ बैठती मुंडेर पर। वो दौड़कर दाना लाती वे दाना खाकर फुर्र से उड़ जातीं। पेड़ों-पक्षियों के बीच कितनी खुलकर जीती थी वह। सोती भी तो खिड़की के नीचे ही थी वह। आँख खुलती उससे छनकर आने वाली रोशनी से। पक्षियों का झुँड गुजर जाता शोर मचाते हुए उसके सामने से। उसका सपना था बस उन पक्षियों की तरह खुली हवा में उड़ना।
" क्या हुआ ? नींद में हँस रही हो। फिर से वही सपना देखा है क्या? " किसन ने उसे हिलाते हुए पूछा।
" नहीं तो! नहीं तो!" वो तो मैंने..." उसने हकबकाते हुए कहा।
"तुम भी ना पता नहीं किस दुनिया में जीती हो। उठो अब भोर होने को है।"
पास पड़ी किताब को तकिए के नीचे खिसकाकर, आँख मलते हुए वह उठ कर बैठ गई।
तभी उसने खिड़की से बगुलों का एक झुँड हवा में उन्मुक्त उड़ते देखा।
"वो देखो किसन! कितने सारे.." फुर्ती से रमा उठ खड़ी हुई।
"हाँ, रमा वे अपने काम पर जा रहे हैं। हमें भी तो जाना है।" किसन बोला।
रमा ने खिड़की से छनकर आती सुबह की धूप को अपनी आँखों में भरा।
और फिर हर रात अपने स्‍व को दिए जाने वाले जवाब को दोहराती, रोज की तरह मंजिल की खोज में निकल पड़ी।

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