यह लघुकथा दरअसल एक ऐसे कथ्य की है, जिसमें समस्या है, उसके दुष्परिणाम भी हैं। समाधान बेशक नहीं है, किन्तु त्रासदी और उसकी संवेदना पाठक को द्रवित करती है। कथ्य के नायक बेबस नजर आते हैं और पाठकों को एक ऐसे मोड़ पर छोड़ जाते हैं कि वे स्वयं इस सोच में पड़ जाते हैं कि इस परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिए।
हाँ, यह लेखक द्वारा भेजी गई रचना का सम्पादित रूप है। लेखक ने इस पर अपनी सहमति दी है। हो सकता है कि कुछ मित्र इसके लेखक को पहचानने का दावा करें। पर मेरी सलाह है कि वे फिलहाल कयास न लगाएँ
वारिस : लेखक का नाम बाद में
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वह उन्नीस-बीस साल का नौजवान रहा होगा। बदन पर पुराने कपड़े, जो इधर-उधर से फटे हुए थे। उन पर ग्रीज़ के दाग थे। जिन्हें देखकर यह अंदाज़ा लगता था कि वह किसी मोटर गराज में काम करता होगा।
सकुचाते हुए वह शीशे का दरवाज़ा धकेलकर बैंक मैनेजर के केबिन में दाख़िल हुआ। उसने अपनी जेब से एक मुड़ा हुआ, तह किया हुआ कागज़ निकालकर मैनेजर के सामने रख दिया, "सर! हमको इसका पैसा दिलवा दीजिये!"
वह एक फिक्स्ड डिपॉज़िट की रसीद थी, दस हज़ार रुपये की! जिसके मैच्योर होने में अभी छः महीने बाक़ी थे। जमा करने वाले का नाम लिखा था - उमेश प्रसाद।
"ये उमेश प्रसाद कौन है?" मैनेजर ने पूछा।
"हमारा बाप !"
"कहाँ है !"
"मर गया थोड़ा टाइम पहले!"
"मर गया !" जैसे मैनेजर आश्वस्त होना चाह रहा था।
"हाँ, मर गया !" नौजवान बोला।
"फिर तो ये पैसे तुम्हें आसानी से नहीं मिल सकते। और मिलने के लिए तुम्हें कुछ और काग़ज़ जमा कराने होंगे। तुम्हारे और कितने भाई-बहन हैं?" मैनेजर ने पूछा।
"हम अकेले हैं साहब! माँ-बाप का एकलौता संतान।"
"अच्छा ठीक है...पर... एक मिनट! तुम्हारी माँ ज़िन्दा है? अगर ज़िन्दा है तो उसके भी साइन करवाने होंगे बैंक के फॉर्म पर।" मैनेजर ने क़ायदे की दुहाई दी।
"माँ ज़िन्दा है... लेकिन उसका साइन नहीं मिल सकता है।"
"कोई बात नहीं। साइन नहीं तो अँगूठा लगा देगी... कल साथ लेते आना।"
मैनेजर ने रास्ता सुझाया।
मैनेजर ने रास्ता सुझाया।
"साहब! माँ नहीं आ सकती है यहाँ।" नौजवान रुआँसा हो गया।
"आना तो होगा ही। बिना आए पैसे कैसे मिलेंगे? " मैनेजर ने पूछा।
नौजवान काग़ज़ उठाकर मोड़ता हुआ, मैनेजर के केबिन से बाहर निकलने लगा। उसके कदमों में जो तेज़ी आते हुए थी, वह अब नज़र नहीं आ रही थी।
मैनेजर ने पीछे से आवाज़ लगाई, "बेटा! आख़िर बात क्या है? तुम्हारी माँ बैंक में क्यों नहीं आ सकती?"
"इसलिए कि वो जेल में है।" नौजवान की आँखों के कोर गीले हो चले थे।
"जेल में! क्यों!!!"
"मेरे बाप को मार डालने का सज़ा काट रही है साहब।"
"बाप की हत्या... जेल में... सज़ा????" मैनेजर के सामने तमाम सवाल मुँह बाए खड़े थे। उसने पूछा,"मैं कुछ समझा नहीं।"
"साहब! हमारा बाप बहुत दारू पीता था। माँ घर-घर काम करके जो पैसा कमाती थी, उससे हमारा पढ़ाई का फीस भरती थी। बाप वो पैसा भी छीनकर दारू पी जाता था और माँ को पीटता था।"
"तो इसमें कौन-सी नई बात है?" मैनेजर थोड़ा सामान्य हुआ।
"है न साहब, नई बात।"
"क्या?"
"एक दिन माँ का बर्दास्त करने का ताकत खतम हो गया। बाप ने जैसे ही उस पर हाथ उठाया, माँ ने उसका हाथ पकड़कर धकेल दिया। बाप माथा के बल सिल-बट्टे पर गिरा और वो वहीं ठंडा हो गया।"
मैनेजर कुछ और कहता, तब तक वह नौजवान उसकी नज़रों से ओझल हो चुका था।
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