यह रचना बिलकुल अलग ही तेवर की है। इसके कथ्य और उसके प्रस्तुतिकरण ने मुझे आकर्षित किया। अमूमन ऐसे कथ्य से बचने की कोशिश होती है। या फिर उन्हें अतिरेक में उठाया जाता है। जबकि जरूरत होती है कि उन्हें प्रस्तुत करते समय एक संतुलन रखा जाए। मुझे इसमें वह नजर आया।
बहरहाल रचना के मूल प्रारूप में कसावट के स्तर पर काँट-छाँट की गई है। लेखक की इससे सहमति है।
अब आप अपनी सहमति/ असहमति दर्ज करें।
पूर्वाग्रह : लेखक का नाम बाद में
**********************************
उस परिवार को कॉलोनी में आए तीन-चार महीने से अधिक हो गए थे। पर अभी तक किसी से उनकी खास जान-पहचान नहीं हो पाई थी। बच्चे हों या बड़े, कभी-कभार हँस-बोलकर केवल एक औपचारिकता निभा लेते थे। झिझक,अनजाना संकोच न बोल कर भी बहुत कुछ कह जाता था।
**********************************
उस परिवार को कॉलोनी में आए तीन-चार महीने से अधिक हो गए थे। पर अभी तक किसी से उनकी खास जान-पहचान नहीं हो पाई थी। बच्चे हों या बड़े, कभी-कभार हँस-बोलकर केवल एक औपचारिकता निभा लेते थे। झिझक,अनजाना संकोच न बोल कर भी बहुत कुछ कह जाता था।
नवरात्र चल रहे थे। कॉलोनी की सारी सुहागिनों को सुगंधा ने भजन संध्या पर आने का बुलऊआ दिया। उसे बुलाऊँ या नहीं, इसी उहापोह में दो दिन निकल गए। फिर ‘सोचा जाने दो। कौन फ़ालतू का टेंशन ले। क्या फर्क पड़ता है नहीं बुलाया तो।’
नियत समय पर ढोल-मंजीरे के साथ माताजी के भजन गाए जाने लगे। धूप-लोभान की महक से घर ही नहीं बाहर का वातावरण भी महक उठा। माताजी की आकर्षक श्रंगारमय मूर्ति मन मोह रही थी। सुगंधा सुहागिनों को पाँव में आलता लगा रही थी। माथे पर कुमकुम लगाकर हाथ में माताजी का रक्षासूत्र बाँध रही थी।
तभी चूड़ियों की खनक ने सभी का ध्यान खींचा। दरवाजे पर शोख रंग की सलवार-कमीज और सिर पर सलमा-सितारे से सजा दुपट्टा ओढ़े वो खड़ी थी। उसे देखकर सुगंधा सकपका गई। लेकिन उसने सहजता से भीतर आकर माताजी को प्रणाम किया। वहाँ रखा हल्दी-कुमकुम चढ़ाया।
फिर बोली,"शायद आप व्यस्तता में भूल गई होंगी, मुझे बुलऊआ देना...। इसलिए मैं खुद ही चली आई। सोचा मातारानी से आशीर्वाद ले लूँ।’’ वह नजदीक ही बैठ गई।
सुगंधा ने भी सहज होते हुए उसका स्वागत किया। फिर अपनी दूसरी सहेली को आलाता लगाने लगी।
उसने धीरे से पूछा, " मुझे नहीं लगाएँगी ? "
"अरे नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन वो आप...आपके समाज में....।" आगे के शब्द कह ही नहीं पाई सुगंधा।
"अरे वो सब छोडि़ए.. वो तो है... लेकिन मैं भी एक सुहागिन हूँ। मैं मातारानी के सामने हाथ जोडूँ। गुरुद्वारे में मत्था टेकूँ। कुरान की आयते पढूँ ,या चर्च में जाकर प्रार्थना करूँ। अपने परिवार की सलामती दुआ मैं कहीं भी माँगू, वो सब पहुँचेगा तो सारा ऊपरवाले के पास ही न..।"
सुगंधा उसके पैरों में आलता लगा रही थी। और आलते का सुर्ख रंग उसके सारे पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ रहा था।
No comments:
Post a Comment