Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-5 (भाग-दो)

पाँचवीं लघुकथा पर चर्चा से पहले मैं एक बात यहाँ रेखांकित करना चाहता हूँ।
यहाँ प्रस्‍तुत की जा रही सभी रचनाएँ मूलत: लेखक की ही होती है। पाठक या समीक्षक के नाते उन पर जो प्रतिक्रियाएँ आती हैं, उनके आधार पर जो भी बदलाव किए जाते हैं, वह लेखक की सहमति से ही होते हैं। यहाँ प्रस्‍तुत पहले या दूसरे रूप को न तो लेखक को या अन्‍य किसी को यह मानना चाहिए कि वही अन्तिम रूप है। लेखक इस बात के लिए स्‍वतंत्र है कि वह अपनी प्रस्‍तुत रचना में भविष्‍य में आवश्‍यक संशोधन कर सकता है। ‘चौपाल’ की यह प्रक्रिया लघुकथा के कथ्‍य तथा उसके विभिन्‍न पहलुओं को परखने का एक माध्‍यम भर है। दूसरे शब्‍दों में यह एक सीखने-सिखाने की साझी प्रक्रिया।
पाँचवीं लघुकथा Kanak K. Harlalka की है। लघुकथा पर जो टिप्‍पणियाँ आईं, उनका संज्ञान लेकर उन्‍होंने अपनी ओर से यह बयान जारी किया है-
‘‘मेरी लघुकथा पर मैंने सभी विद्वजनों की टिप्पणियाँ देखीं (यद्यपि बहुत कम थीं)। उन सभी पर विचार करते हुए मुझे कथा में मुख्यतः दो दोष अधिक चर्चित लगे 'अन्त' व 'शीर्षक'।
DrKumar Sambhav Joshi जी ने परम्परागत प्रचलित दृष्टिकोण से मुख्य पात्रा की मुक्ति कामना की धारणा को पूर्णतः नकार दिया।
सभी ने उसकी सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद की चाह को मुख्य मुद्दा बनाया पर उसके पीछे के कारण आलोचकों से छिपे रहे। चरित्र चित्रण की दृष्टि से देखें तो नायिका एमबीए पास, सुलझी हुई समझदार व पारिवारिक मूल्यों को समझने वाली है। इसी कारण उसने माता-पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए खुद न चाहते हुए भी शादी के लिए हाँ की। वह अन्त तक इस सम्बन्ध को निभाने का प्रयत्न करती है। ' कुछ साल' उसने इस सम्बन्ध को दिए। पूर्ण रूप से एडजस्ट करने की कोशिश की। एक पढ़ी-लिखी खुले व्यक्तित्व वाली युवती ने ऐसे परिवार में जहाँ लोगों की सोच में शादी के स्थायित्व का मूल्य केवल शॉपिंग, मौज मस्ती है निभाने की कोशिश की।
सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद के कारण के मूल में पति के चरित्र चित्रण पर किसी समीक्षक का ध्यान नहीं गया। सब कुछ सहकर भी जहाँ तक शादी की बात है वह मुख्यतः पति-पत्नी के आपसी सामंजस्य पर आधारित होती है। जहाँ पति-पत्नी दोनों जीवन में बराबर के हिस्सेदार हैं वहाँ 'इजाजत' का क्या स्‍थान ! उसने पत्नी को नौकरी करने दी है तो उसकी इच्छा के सम्मान के लिए नहीं वरन अपने मनमौजीपन की सुरक्षा के लिए। साथ ही अपने पैसों पर भी पत्नी का नहीं पति का ही अधिकार लगता है। पति ने एक बार भी पत्नी की नाखुशी को समझदारी देने का प्रयत्न नहीं किया। ' मैं खुश हूँ।' 'मैं डायवोर्स नहीं चाहता।' बस !! शादी में एक स्थिति होती है सोलमेट की। ऐसे में पढ़ी-लिखी, व्यक्तित्वशील नारी के पास सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद चाहना क्यों सही रास्ता नहीं है ?
Sheikh Shahzad Usmani जी ने कथा को समझते हुए शीर्षक सम्बन्धित प्रश्न उठाया। उनके पहले अनुच्छेद की सार्थकता के सम्बन्‍ध में जिज्ञासा का उत्तर Rajesh Utsahi जी द्वारा पूर्णतः स्पष्टता से दे दिया गया है।
Arun Kumar Gupta एवं Archana Tiwari जी ने कथा के मर्म को अच्छी साझेदारी दी है। अर्चना तिवारी ने कथा की सुन्दर समीक्षा की है। अन्त सम्बन्धित उनके सुझाव से मैं सहमत हूँ। ' आजादी चाहिए ' 'दम घोंटू वातावरण ' कुछ इन्कलाबी घोषणा सा हो जाता है, जबकि नायिका बहुत सहनशील व गम्भीर चरित्र की चुपचाप धीरता और दृढ़ता से अपना मार्ग चुन लेने का निर्णय कर आकाश की उड़ान में अपना रास्ता खोज लेती है।’’
कनक जी ने उपरोक्त सभी टिप्पणियाँ ध्यान में रखते हुए कथा में जो बदलाव किए हैं, उसका नया रूप यहाँ प्रस्‍तुत है।
चाह : कनक एच. हरललका
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आज फिर उसे लेकर दोनों परिवार वालों की मीटिंग ड्राइंगरूम में बैठी थी। कुछ ही साल पहले यहीं उस दिन मसला था ‘क्यों नहीं चाहती’, आज मसला था ‘क्यों चाहती हो’। वह सुन्दर, एमबीए पास स्पोर्टस में आगे वैसी ही गुणी कन्या थी जैसी बहू उसके कथित धनाढ्य, खानदानी, रईस ससुराल वाले चाहते थे। और दामाद वैसा ही जैसा उसके घर वाले चाहते थे,खानदानी रईस, स्मार्ट लुक। उस दिन उसका 'न चाहना ' क्यों ? और आज उसका 'डायवोर्स' 'चाहना' क्यों ?
"अब क्या तकलीफ हो गई तुम्हें ?" पिता ने पूछा।
"क्या वह तुम्हें शॉपिंग नहीं ले जाता?" गले का हार ठीक करते हुए राहुल की माँ ने पूछा।
"वह तुम पर हाथ उठाता है ?" उसकी माँ ने पिताजी की ओर देखते हुए पूछा।
"राहुल मेरे साथ सुखी नहीं रह सकता। मैं शायद उसके टेस्ट की नहीं हूँ।"
"मैं सुखी हूँ या नहीं यह तुम कैसे कह सकती हो। मैं जानता हूँ मुझे क्या चाहिए। मैं सुखी हूँ। मैं डायवोर्स नहीं चाहता।" राहुल ने जवाब दिया।
"तो ठीक है, मैं राहुल के साथ सुखी नहीं हूँ। मुझे उससे डायवोर्स चाहिए।" उसने तल्‍खी भरे स्‍वर में कहा।
"क्यों सुखी नहीं हो? मैं अपने ढंग से जीता हूँ तो मैंने तुम्हें भी मन लगा रखने का मौका दे रखा है। हमारे घर में औरतें काम नहीं करतीं। फिर भी मैंने तुम्हें अपना काम करने की इजाजत दी है।" राहुल लगभग चिल्‍लाते हुए बोला।
"इजाजत...? मेरा काम...? तुम्हारे पैसे...?" उसने दबे लेकिन तीखे स्‍वर में कहा।
"कुछ नहीं, एक बार बच्चा हो जाए तो खुद ही बन्धन में पड़ जाएगी।" राहुल की माँ बोली।
"बस जल्दी से एक बेटा ले आ। देरी किस बात की है। अभी तक हुआ क्यों नहीं?" उसकी माँ भी पीछे नहीं रही।
"जहाँ मुझे अपनी हर साँस के लिए इजाजत लेनी पड़ती है वहाँ बच्चा....कभी नहीं ? "
"फिर आखिर तुम्हें क्या चाहिए ?" राहुल और उसके पिता एक साथ बोले।
" मुझे चाहिए आजादी, अपना जीवन जीने की आजादी!! " उसकी आँखें खिड़की से दिखते हुए आकाश और उँगलियाँ पर्स में रखी पिल्स को सहला रही थीं

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