Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-7 (भाग-एक)

इस लघुकथा का कथ्‍य बहुत जाना-पहचाना है, पर ट्रीटमेंट नया सा है।
बाकी आप बताएँ।
जतन : लेखक का नाम बाद में उजागर होगा
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भौं...भौं...भौं...भौं...उस अँधेरी सड़क पर आवारा कुत्तों की आवाजें सन्नाटे को चीर रही थीं। शाम के आठ बजे थे। सर्दियों का मौसम होने से आसमान से ओस गिर रही थी। बर्फीली हवा के झोंकों के चलते सड़क पर आवाजाही न के बराबर थी।
‘हट, हट, दूर हट...मैं मार दूँगी पत्थर, चल भाग...’, आठ-नौ साल की वह लड़की अपने ऊपर झपट रहे कुत्तों को ललकारती हुई चीख रही थी। वह मुड़-मुड़कर पीछे देखती जाती। हाथ में पत्थर होने का अभिनय करती और फिर आगे भागती जाती। साथ-साथ बगल में दबी थैली को भी टटोलती जाती।
अचानक लड़की को ठोकर लगी और वह धड़ाम से सड़क पर गिर पड़ी। कुत्तों को जैसे मौका मिल गया। चीत्कार करते हुए वे उसकी ओर दौड़ पड़े। आने वाली परिस्थिति की भयावहता को भाँपकर वह गला फाड़कर चिल्‍ला पड़ी, ‘बचाओ, बचाओ,’ उसकी चीख उस वीरान गली में गूँज उठी।
कुत्ते लगभग उस पर झपटने ही वाले थे। अचानक सामने से आते किसी वाहन की तेज रोशनी उन पर पड़ी। वे चौंधियाते हुए वहीं ठिठक गए। एक-दो ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो एक पत्थर तेजी से उन्हें आ लगा। खतरे को सूँघकर बाकी कुत्ते भी हल्की आवाज में गुर्राते हुए यहाँ-वहाँ हो लिए। एक हाथ ने सड़क पर गिरी हुई लड़की को उठाया और सड़क के किनारे खड़ा कर दिया।
‘‘अकेली कहाँ जा रही है, इस अँधेरे में ?’’ उस भारी आवाज ने पूछा।
‘‘बाबा की दवा खत्म हो गई थी। माँ ने दवा लाने भेजा था।’’ वह बगल की थैली को टटोलते हुए थरथराती आवाज में बोली।
‘‘ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ..।’’
वह खुशी-खुशी मोटरसाइकिल पर सवार हो गई।
‘‘अंकल, मेरे घर का रास्ता इधर से है...,’’ मोटरसाइकिल को दूसरी गली में मुड़ते देख वह बोली।
‘‘हाँ, बस जरा सा काम है यहाँ, फिर चलते हैं तुम्‍हारे घर...!’’
मोटरसाइकिल एक अँधेरे कमरे के पास जाकर रुकी।
‘‘आ जा अंदर...!’’ भारी आवाज ने कहा।
उसके न चाहते हुए भी उसे अंदर घसीटा जाने लगा। वह उसकी मंशा समझ गई। कुत्ते तो चले गए थे, मगर यह भेड़िया....। उसने उसकी कलाई पर पूरी ताकत से अपने दाँत गड़ा दिए। और फिर दरवाजा उसके मुँह पर भेड़ते हुए वहाँ से बेतहाशा भाग निकली। उसे अहसास हो गया था कि कुत्ते ही नहीं, ऐसे भेड़ियों से बचने का जतन भी उसे स्वयं ही करना होगा।

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