Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-10 (भाग-दो)

यह कथा एक ऐसी लेखिका की है जो फेसबुक पर नहीं हैं, पर फिर भी फेसबुक की पोस्‍ट देखती रहती हैं। उन्‍होंने लघुकथा चौपाल और उस पर हो रही चर्चाएँ देखीं, तो अपनी उक्‍त रचना भेज दी।
इनका नाम है वर्षाश्री। वे भोपाल के नवाचारी 'आनंद निकेतन डेमोक्रेटिक स्‍कूल' में शिक्षिका हैं। अनकही का जितना हिस्‍सा यहाँ है लगभग उतना ही और था, जिसे मैंने अपने सम्‍पादन में हटा दिया। जैसा कि मैं बार-बार कहता रहता हूँ, सम्‍पादन के बाद मैं लेखक से उस पर सहमति लेता हूँ। तो अनकही में भी लेखिका से अनुमति ली। जो हिस्‍सा हटाया है,वह क्‍या था, यह जानने के लिए कृपया उसे यहाँ देने का आग्रह न करें। हाँ अगर फिर भी किसी को अधिक जिज्ञासा है तो वह वर्षाश्री से 2varshashree@gmail.com पर सम्‍पर्क कर सकता है। वे उपयुक्‍त समझेंगी, तो आपको लघुकथा का मूल रूप भेज देंगी।
बहरहाल उन्‍होंने अपनी तरफ से एक टिप्‍पणी लिखी है, वह प्रस्‍तुत है :
लघुकथा पर आई सारी टिप्पणियाँ पूरी जिम्मेदारी से पढ़ीं। सबकी बेहद शुक्रगुजार हूँ। हर किसी तक मेरा तहेदिल से आभार पहुँचे। सभी की टिप्पणियाँ सिर माथे पर। एक बात और समझ मेँ आई कि सेक्सुअलिटी को लेकर समाज को और भी संवेदनशील बनाना शायद हम सब की रचनात्मक जिम्मेदारी है। जैसे एक लड़के या लड़की के शारीरिक खोल में उससे उलट आत्मा (हार्मोंन्स) का होना, दरअसल कितना घुटनभरा होता होगा, शायद हम खुद भी अहसास के स्तर पर उतनी शिद्दत से नही महसूस कर पाते हैं। उनके बचपन के अहसास को बारीकी से पकड़ पाना तो और भी कठिन है। फिर लड़की का लड़की के प्रति और लड़के का लड़के के प्रति आकर्षित होना, कम ही सही पर एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह बात भी मुझे लगता है समाज के लोकतांत्रीकरण के मुद्दे से ही जुड़ी हुई है। और हमारा समाज इन बातों को लेकर अभी भी उतना सहज नहीं है।
Janki Wahie जी की टिप्पणी कहानी में इस्तेमाल गीत को लेकर है, जिसका आपने माकूल जवाब दिया है। फिर भी मुझे लगता है कि अगर कोई आज के समय का अनुकूल गीत मिले तो हम उसे बदल सकते हैं। मैंने बदला भी है। अन्‍य कोई परिवर्तन तो मुझे नहीं सूझ रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया के लिए मैं चौपाल की शुक्रगुजार हूँ। सबसे बड़ी बात है कि कोई रचना कभी भी व्यक्तिगत नहीं होती। पूरा समाज मिलकर उसे मुकम्मिल करता है। इस रचना का इस चक्र से गुजरना इसकी एक मंजिल का एक पड़ाव है।
अक्सर मैं कोई कविता, कहानी लिखने के बाद मित्रों से राय लेकर उसे पूरा करने का प्रयास करती हूँ। लेकिन उनमें से अधिकाँश मुझे जानने वाले लोग होते हैँ। यह प्रक्रिया इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि इसे पढ़कर राय देने वाले सभी लोग मुझे नहीं जानते हैं।
अनकही : वर्षा श्री
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घर के सारे काम-काज निपटाकर तूलिका मेज कुर्सी पर बैठी कि आज जरूर कुछ लिखेगी। उसने जैसे ही कलम उठाई, उसे लगा कि उसके हर तरफ हलचल मच गई। वह परेशान होकर चारों ओर नजर घुमाने लगी। पहले तो उसे कुछ दिखाई नहीं दिया। फिर उसने देखा। उसकी मेज पर नन्हीं-नन्हीं आकृतियाँ घूम रही हैं। वे सभी उससे कुछ कहना चाह रही थीं। उसने ध्यान से उनकी बातें सुनने की कोशिश की। दरअसल वे कहानियों के पात्र थे। वे चिल्ला-चिल्लाकर उसे अपनी कहानी सुनाना चाह रहे थे। कभी हामिद उसे अपनी ओर खींचता, तो कभी नन्‍हीं। कभी काली कहती कि तुमने मेरे और मेरी माँ के बारे में नहीं लिखा। तो कभी फटेहाल चिन्‍नी अपनी सुरीली आवाज में कहती देखो मैं कितना अच्‍छा गाती हूँ। पर तुम्‍हारी नजर मेरी ओर कभी गई ही नहीं।
तूलिका ने परेशान होकर कहा, ‘‘लिखूँगी, बाबा सबके बारे में लिखूँगी। चलो सबसे पहले मैं काली से ही दोस्ती बढ़ाती हूँ।'’ वह काली की कहानी लिखना शुरू करने ही वाली थी, कि एक प्यारा सा बच्चा कूदकर उसकी कॉपी पर आ गया।
उसने कहा, ‘‘नहीं सबसे पहले मेरे बारे में लिखो।’’ तूलिका उसे ध्यान से देखने लगी।
‘‘लेकिन पहले ये बताओ कि तुम हो कौन? मैं तो तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं जानती।’’
उसने कहा, ‘‘यही तो मुश्किल है कि कोई मुझे समझता ही नहीं। मेरी माँ भी नहीं।’’
‘‘माँ भी नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है?’’
‘‘क्योंकि मैं जो दिखता हूँ, वह मैं हूँ नहीं। आज मेरी उम्र 14 साल की है। बचपन से ही मेरा मन फ्रॉंक पहनने को करता है। पर मेरी माँ मुझे हमेशा पैण्ट-शर्ट ही पहनाती आई है। आजकल तो मेरे मन में अजीब सी हलचल मची रहती है।’’
‘‘कैसी हलचल ?’’
''आजकल मेरा मन हर वक्‍त आइना देखते रहने को करता है। मन करता है कि मैं खूब सजूँ-सँवरूँ, माँ की तरह लाल रंग की लिपिस्टिक लगाऊँ। ढेर सारी चूड़ियाँ और घाघरा पहनकर नाचूँ। मुझे नाचना बहुत पसन्द है। जब घर में कोई नहीं होता तो दरवाजा बन्द करके खूब सिंगार करके देर तक नाचता रहता हूँ।’’
''घूमर-घूमर घूमर-घूमर घूमर-घूमर घूमे रे... मन का घूमर जब भी घूमें सूनेपन में मेला भरके ...घूमर-घूमर, घूमर...'' वह सुरीले सुर में गाने लगा। तूलिका मंत्रमुग्‍ध उसे सुने जा रही थी।
सच में उसने आज तक ऐसी कहानी पर ध्यान ही नहीं दिया था। वह अपने खयालों में खो गई। अचानक वह अपने घुटनों के बल बैठ गया और फफक-फफक कर रोने लगा। तूलिका ने उसके कन्धे पर हाथ रखा, ‘‘नहीं, रोओ नहीं, मैं जरूर तुम्हारी कहानी लिखूँगी।’’
‘‘क्या तुम मेरी उलझन समझ सकती हो?’’
‘‘क्या उलझन है?’’
‘‘मेरी क्लास में एक लड़की पढ़ती है। वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है। इतनी अच्छी ...इतनी अच्छी....इतनी अच्छी....कि मैं उसे प्यार करने लगी हूँ...नहीं-नहीं लगा हूँ...। वह भी मुझे प्यार करती है। ऐसा उसने खुद मुझसे कहा है।’’
तूलिका खुश होकर हँसने लगी, ‘‘अरे ये तो अच्छी बात है। पर तुम रो क्यों रहे हो। शायद इसलिए कि तुम्हें प्यार हो गया है...। है ना!’’
‘‘मैं कह रहा था न कि तुम मेरी उलझन समझ ही नहीं सकतीं। दरअसल वह तो मुझे एक लड़का समझकर प्यार करती है...जब कि मेरा मन तो बचपन से ही लड़की...।’’ कहकर वह जोर-जोर से रोने लगा।
इतनी जोर से कि मेज पर सिर टिकाए सो रही तूलिका की नींद खुल गई।

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