Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-9 (भाग-एक)

पहले ही कह दूँ कि यह चौपाल में बिलकुल अलग कथ्‍य की रचना है। ठीक वैसी ही, जैसी चौपाल की फितरत होती है। हाँ, लघुकथा की तमाम कसौटियों पर यह कहाँ ठहरती है, वह अब देखने की बात है।
अनुपयोगी : लेखक का नाम बाद में
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जनवरी की एक सुबह। फिजां में ठंडक घुली हुई है। मुँह धोकर पोंछ लिया है। आईने में नहीं देखा है। अब वैसा ही तो होगा। रात भर में क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मोटरसाइकिल पोर्च में रखे-रखे गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनको साफ करने की जरूरत नहीं लगती। साफ करने का मन भी नहीं है।
ऐसे ही स्टार्ट करके चौराहे तक आ गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। सिटी बस का यह आखिरी स्टॉप है। इसलिए ड्रायवर बस वापस मोड़ते हुए ऐसे खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।
मजदूर काम पर जाने से पहले टपरे में पोहे-जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी वहाँ चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में सजे-धजे पैदल स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों पर चल रहा है। चौथी टांग टेढ़ी जो है।
पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को स्‍कूल बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएँगे। मैं लड़की के बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ। लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। लड़की सुंदर है। मेरी नीयत में खोट नहीं है। बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। भाई लपककर चढ़ गया। लड़की ठिठकी। उसने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और फिर बस में चढ़ गई। मेरा अनुपयोगी मिरर एक क्षण को उपयोगी हो गया।
धूल थी तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए।
वाकया बस इतना सा ही है। लेकिन श्रीमती जी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं, "अब समझ में आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।"

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