Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल – 3 (भाग-एक)

 इस प्रयोग के लिए लगातार लघुकथाएँ मिल रही हैं। एक लघुकथा को कम से कम एक हफ्ते तक पाठकों के बीच रखने की हमारी जिद के कारण साथियों को अपनी बारी की प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। पर वे भी जानते हैं कि सब्र का फल मीठा भले ही न हो, खट्टा-मीठा जरूर होगा।
कुछ साथियों को उनकी रचनाएँ सखेद वापस करनी पड़ी हैं, शायद आगे भी करनी पड़ेंगी। पर उनसे नई रचनाओं की अपेक्षा तो हमेशा रहेगी ही।
अपेक्षा यह भी है कि इस प्रयोग के लिए ऐसी अप्रकाशित लघुकथाएँ भेजें,जिनका कथ्‍य कुछ अलग हो,नया हो। फार्मूला आधारित और जैसे को तैसा कथ्‍यों वाली रचनाओं से अपन दूर रहना चाहते हैं।
इनबॉक्‍स में रचनाएँ भेजते समय कृपया यह स्‍पष्‍ट लिखें कि यह ‘चौपाल’ के लिए है।
प्रस्‍तुत है इस क्रम की तीसरी लघुकथा। मुझे इसके कथ्‍य और प्रस्‍तुतिकरण ने आकर्षित किया। रचनाकार इस दुविधा में था कि इसका अन्‍त कैसे करे। मैंने उसमें थोड़ी मदद की है। बहरहाल यह मूल रचना का सम्‍पादित एवं रचनाकार द्वारा अनुमोदित रूप है।
अब इसे कसौटी पर कसने की आप की बारी है।
तितलियों के रंग : रचनाकार का नाम बाद में उजागर होगा
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"अरे पिंक नहीं, ये ऑरेंज कलर लगा न!" शीतल ने टोका।
हिना ने शीतल के हाथ में पकड़ी लिपस्टिक को गौर से देखा। फिर चहकते हुए बोली, " ओ हाँ, यही तो लगानी है!"
कुशल चित्रकार की तरह अपने मुखड़ों पर तरह-तरह के रंग लगाती लड़कियों को अमीना बी बड़े नेह से निहार रही थीं। चिढ़ाने की गरज से बीच-बीच में छेड़ती जा रही थीं, "अये हये! छोरियों, तुम तो यूँ सज रही हो जैसे सहेली का नहीं तुम्हारा खुद का ही ब्याह हो रहा है।"
"हमारी बेस्ट फ्रेंड है सरला! हमें भी तो सुन्दर दिखना है बड़ी बी। वरना ससुराल में हमारी दोस्त की नाक नहीं कट जाएगी?" शीतल ने पलकों पर मस्कारा लगाया था। सुखाने के लिए उन्‍हें झपकाते हुए अपनी दोस्त की दादी को जवाब दिया।
"जो कहीं सरला के दूल्हे का दिल तुम पर ही आ गया तो? मेरी मानो, अब बस भी करो!" बड़ी बी भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं।
हिना ने दादी को घूरा। फिर बिना कुछ बोले आँखों ही आँखों में, उतारकर फेंके हुए उनके कपड़े समेटती हुई माँ से शिकायत कर दी। माँ भी शरारत से मुस्कुरा दी। बार-बार कुछ न कुछ ठीक करती जा रही लड़कियों को हिना की माँ ने टोका, "अब तैयार हो गई हो तो निकलो भी। गाड़ी कब से खड़ी है, क्या बारात के बाद पहुँचोगी ?"
घड़ी पर नजर पड़ते ही दोनों उछल पड़ीं, "चल-चल, जल्दी निकलें!" हिना को पीछे से धकेलती हुई शीतल बोली।
दादी और माँ ने फिर से बच्चियों को छेड़ा,"अरे मेरी गुलाबी और नारंगी तितलियों अब निकलो भी।"
हिना ने एक आखिरी बार खुद को आईने में निहारा। फिर पहनने के लिए बुर्के को उठाया और अनायास ही मायूस हो गई। उसकी यह मायूसी माँ से छुप नहीं सकी। वह पहनती उससे पहले ही माँ ने उसके हाथ से बुर्का वापस ले लिया। मॉं की ऑंखों में जाने का इशारा था।
हिना ने माँ के पीछे खड़ी दादी की तरफ देखा। उनकी आँखों में भी कुछ ऐसा ही था। फिर तो हिना ने शीतल का हाथ पकड़ने और तितली की तरह उड़ान भरने में पल भर की देर नहीं की।

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