Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल – 24 (भाग-दो)

इसका कथ्‍य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्‍दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्‍तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्‍छी लगी कि इसका सम्‍बन्‍ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्‍पादन किया गया था। और अब रचनाकार का कहना है कि वह इसमें कोई और संशोधन करना भी नहीं चाहता।
यह लघुकथा मृणाल आशुतोष की है। वास्‍तव में इस पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, हुई नहीं। मेरा मानना है कि अमूमन हम उस समस्‍या पर ज्‍यादा चर्चा नहीं करते हैं, या उससे बचने की कोशिश करते हैं, जिसमें किसी न किसी रूप में शामिल होते हैं। कहने को इसका कथ्‍य एक बहुत ही छोटी-सी टिप्‍पणी है, पर यह हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का एक विद्रूप चेहरा है। हम बच्‍चों को वह सब पढ़ा रहे हैं, जिन्‍हें हम स्‍वयं ही अपने जीवन में उतार नहीं पाए हैं।
प्रतिक्रियाओं में कुछ साथियों ने इस बात की ओर इशारा भी किया है। त्रिभाषा फार्मूले की बात भी Arun Danayak जी ने कही है। Somesh Saxena ने अपने सवाल से उन छिपे पहलुओं को खोला है, जो इस लघुकथा के असली निशाने पर हैं। Virender Veer Mehtaजी ने इसके अधूरेपन की ओर ध्‍यान खींचा है। लेकिन मेरी राय में अधूरापन ही इसकी जान है।
और अंतिम क्षणों में आकर अर्चना तिवारी ने इस पर यह महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की है :
भले ही यह लघुकथा साधारण हो, भले ही यह कथनी करनी पर आधारित हो, भले ही रचनाकार ने यह सोचकर इसे ना लिखा हो किन्तु यह एक कटु सत्य कहती है जिसके पक्ष में शायद कुछ लोग ही हों।
आज समाज में जिस तरह से भक्त और ज्ञानी को एक-दूसरे का पर्याय समझा जा रहा है वह ऐसे ही श्लोकों के आदर्शवादी ज्ञान का परिणाम है।
विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
1. यानी जिनके पास विद्या नहीं है वे विनयी नहीं हैं?
2. जो विनयी हैं (इसे आज का भक्तवाद भी कहूँगी) वे कतई किसी बात के पात्र नहीं, योग्य नहीं. यानी हर बात पर हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला ही योग्य है?
3. अब जब ऐसे विनयी होंगे तो उनके पास धन तो होना ही है।
4. जिसके पास ऐसा धन है तो वर्तमान कथित धर्म उसके पक्ष में होगा ही।
5.और जिसके पास धर्म है तो वह परम सुख पाएगा ही।
इस लघुकथा में उपस्थित अध्यापक उन सभी लोगों का प्रतीक है जो इस मानसिकता के हैं कि विद्या को घोटकर पी लेने वाला ही सर्वगुण सम्पन्न है। चाहे उसकी विचारधारा, उसका कृत्य समाज के हित में ना भी हो।
***
निश्चित ही अर्चना तिवारी महत्‍वपूर्ण बात कह रही हैं। पर अध्‍यापक अकेले को गरियाने के क्रम में हम यह न भूल जाएँ, कि अध्‍यापक को बनाया किसने, वह किस व्‍यवस्‍था में बना है या कौन बना रहा है। उसका प्रशिक्षण, प्रशिक्षण के तरीके,पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्‍तकें और जिस आधार पर उन्‍हें बनाया गया है, उनका पाठयक्रम और पाठ्यचर्या, आकलन के तरीके भी इसके लिए जिम्‍मेदार हैं।
और सबसे महत्‍वपूर्ण बात कि अंतत: शिक्षा का उद्देश्‍य क्‍या है ?
विद्या : मृणाल आशुतोष
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"
बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्‍लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, " विद्या विनय देती है.... !"


09/06/2018

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