Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-7 (भाग-दो)

सातवीं कड़ी में प्रस्‍तुत लघुकथा Bharti Pandit की है। उन्‍होंने सभी मित्रों की प्रतिक्रियाओं का संज्ञान लिया है। हालाँकि उसके आधार पर उनकी मूल रचना में कोई उल्‍लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। मेरी अपनी राय में भी बदलाव बनता भी नहीं है। हाँ, उन्‍होंने रचना का शीर्षक अवश्‍य बदला है। वास्‍तव में मूल शीर्षक यही था। कुछ मित्रों की भी राय थी कि ‘जतन’ शीर्षक उपयुक्‍त नहीं है।
रचनाकार के निर्णय का सम्‍मान करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि इस शीर्षक से मैं इत्‍तफाक नहीं रखता। मेरी राय में शीर्षक ऐसा नहीं होना चाहिए, जिसे पढ़ते ही पूरे कथ्‍य का अंदाजा हो जाए। चूँकि बात निकली है तो मैं यह बताता चलूँ कि हाल ही मैं योगराज प्रभाकर जी के सम्‍पादन में ‘लघुकथा कलश’ का महाविशेषांक प्रकाशित हुआ है। इसमें डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र का लेख ‘लघुकथा का शीर्षक’ भी है। जिनके पास भी यह महाविशेषांक हो,उन्‍हें भी और जिनके पास न हो उन्‍हें भी ढूँढ़कर, यह लेख अवश्‍य पढ़ना चाहिए। शीर्षक को लेकर समझ साफ होगी।
चौपाल सामान्‍य चौपाल नहीं है। इस पर नए प्रयोगों और नवाचारों का हमेशा स्‍वागत रहेगा। भारती जी ने हालाँकि अपनी मूल रचना में कोई बदलाव नहीं किया। पर उन्‍होंने उसका एक और रूप और सोचा। इसमें उन्‍होंने मूल रचना का आखिर का कुछ हिस्‍सा बदला है। हम दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि यह रूप कमजोर और कच्‍चा है। पर ऐसा कुछ भी सोचा जा सकता है। भारती जी की सहमति से वह रूप भी यहाँ प्रस्‍तुत है।
कुत्ते और भेड़िया : भारती पंडित
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भौं...भौं...भौं...भौं...उस अंधेरी सड़क पर आवारा कुत्तों की आवाजें सन्नाटे को चीर रही थीं। रात घिर आई थी। आसमान से ओस गिर रही थी। बर्फीली हवा के झोंकों के चलते सड़क पर आवाजाही न के बराबर थी।
‘हट, हट, दूर हट...मैं मार दूँगी पत्थर, चल भाग...’, आठ-नौ साल की वह लड़की अपने ऊपर झपट रहे कुत्तों को ललकारती हुई चीख रही थी। वह मुड़-मुड़कर पीछे देखती जाती, हाथ में पत्थर होने का अभिनय करती और फिर आगे भागती जाती। साथ-साथ बगल में दबी थैली को भी टटोलती जाती।
अचानक लड़की को ठोकर लगी और वह धड़ाम से सड़क पर गिर पड़ी। कुत्तों को जैसे मौका मिल गया। चीत्कार करते हुए वे उसकी ओर लपके। आने वाली परिस्थिति की भयावहता को भाँपकर वह गला फाड़कर चिल्‍ला पड़ी, ‘बचाओ, बचाओ,’ उसकी चीख उस वीरान गली में गूँज उठी।
कुत्ते लगभग उस पर झपटने ही वाले थे कि अचानक किसी वाहन की तेज रोशनी उन पर पड़ी और वे चौंधियाते हुए वहीं ठिठक गए। एक-दो ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो एक पत्थर तेजी से उन्हें आ लगा। खतरे को सूँघकर बाकी कुत्ते भी हल्की आवाज में गुर्राते हुए यहाँ-वहाँ हो लिए।
एक हाथ ने सड़क पर गिरी हुई लड़की को उठाया और सड़क के किनारे खड़ा कर दिया।
‘‘अकेली कहाँ जा रही है, इस अँधेरे में ?’’ उस भारी आवाज ने पूछा।
‘‘बाबा की दवा खत्म हो गई थी। माँ ने दवा लाने को भेजा था।’’ वह बगल की थैली को टटोलते हुए थरथराती आवाज में बोली।
‘‘ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ..।’’
वह एक क्षण को हिचकिचाई मगर कुत्तों के डर से मोटरसाइकिल पर बैठ गई।
‘‘अंकल, मेरे घर का रास्ता इधर से है...,’’ मोटरसाइकिल को दूसरी गली में मुड़ते देख वह बोली।
‘‘हाँ, बस जरा सा काम है यहाँ, फिर चलते हैं तुम्‍हारे घर...!’’
मोटरसाइकिल एक अँधेरे कमरे के पास जाकर रुकी।
‘‘आ जा अंदर...!’’ भारी आवाज ने कहा। वह एक ओर सिमट गई।
उसके न चाहते हुए भी उसे अंदर घसीटा जाने लगा। वह उसकी मंशा समझ गई। कुत्ते तो चले गए थे, मगर यह भेड़िया....। उसने उसकी कलाई पर पूरी ताकत से अपने दाँत गड़ा दिए। और फिर दरवाजा उसके मुँह पर भेड़ते हुए वहाँ से बेतहाशा भाग निकली।
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सच और झूठ : भारती पंडित
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(लघुकथा का उत्‍तरार्द्ध ‘कुत्ते और भेड़िया’ का ही है।)
मोटरसाइकिल एक अँधेरे कमरे के पास जाकर रुकी।
‘‘आ जाओ अंदर...!’’ भारी आवाज ने उसका हाथ थामते हुए कहा।
वह एक ओर सिमट गई। अजनबियों से बचकर रहना बेटा...उसे माँ की बात याद आ गई थी।
वह उसकी कलाई पर दाँत गड़ाने ही वाली थी कि अचानक कमरे का दरवाजा खुला और एक आवाज़ सुनाई दी, 'माँ, बाबा आ गए हैं...।'
फ्रॉक पहने उसके जैसी एक लड़की दरवाजे पर खड़ी थी।

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