Tuesday, June 19, 2018

लघुकथाचौपाल -19 (भाग- दो)

भाग-एक में प्रस्‍तुत लघुकथा है DrKumar Sambhav Joshi की।
इस पर भी टिप्‍पणी लम्‍बी है। कृपया समय लेकर पढ़ें।
नए कथ्‍य के कारण यह चौपाल पर है। मैंने पहले भी कहा था कि इस बात के लिए रचनाकार की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इस मुद्दे को पहचाना। साथ ही कहा था कि अन्‍य बातों के अलावा इस बात पर जरूर विचार किया जाना चाहिए कि क्‍या इसका ट्रीटमेंट और बेहतर हो सकता था ?
जो टिप्‍पणियाँ आईं,उनमें कथ्‍य पर बहुत अधिक चर्चा नहीं हुई। केवल अर्चना तिवारी ने कुछ कहने की कोशिश की। या फिर पूर्णिमा जी ने ऐसी शिक्षिका के होने पर सवाल उठाया। ज्‍यादातर लोग इस बात पर केन्द्रित रहे कि रचना को छोटा कैसे किया जा सकता है, या ऐसा क्‍या है जिसे उसमें से हटाया जा सकता है। या फिर इस बात पर कि अंत कैसे हो।
कुमारसम्‍भव जी ने सभी टिप्‍पणियों का संज्ञान लिया। उनका कहना है कि, ‘रचना पर विशेष सुझाव ही नहीं मिले। एकाध पंक्ति की कटौती करने के सुझाव जरूर आए बस। आप 'भाग दो' में यदि कोई परामर्श दें तो मैं संशोधन का प्रयास करूँगा। अभी तो विमर्श से कुछ खास निकलकर नहीं आया लग रहा है।’
तो आगे चर्चा करने के पहले लघुकथा एक बार फिर से पढ़ लें।
बोझ : डॉ. कुमारसम्भव जोशी
*******************************
लंच ब्रेक में भी वह बच्चा किताब में सर घुसाए बैठा था। पढ़ने में उसका बिलकुल मन नहीं था, मगर फिर भी जैसे जबरदस्ती किसी ने जकड़ रखा हो।
अर्चना ने गौर किया कि रह रह कर बच्‍चे की निगाह ऑफिस के दरवाजे पर बैठे चपरासी तक जाती है। अर्चना दो-तीन पहले ही इस स्‍कूल में आई थी।
अर्चना ने उसके पास जा कर पूछा, "आपने अपना लंच फ़िनिश किया?’’
बच्चे ने हाँ में सिर हिला दिया।
"तो जाओ थोड़ी देर प्ले ग्राउण्ड में अपने दोस्तों के साथ खेल लो।" उसने बच्चे के हाथ से किताब लेनी चाही।
"नो मैम!" बच्चे ने एक निगाह पानी की ट्रे लेकर ऑफिस में जाते चपरासी पर डाली और वापस किताब पर सिर झुका लिया।
"क्यों बेटा! क्या आपको खेलना अच्छा नहीं लगता या दूसरे बच्चे तंग करते हैं?" एक अच्छी टीचर की तरह उसने बच्चे का मन टटोलना चाहा।
"नो मैम!" उसकी निगाह फिर चपरासी की ओर चली गई।
प्रिंसिपल मैम बाहर आई थीं, चपरासी खड़े होकर हमेशा की तरह सलाम कर रहा था।
चाइल्ड एब्यूजिंग, अर्चना के दिमाग में बिजली-सी कौंधी।
नहीं नहीं। यह चपरासी तो सीधा आदमी लगता है.... मगर कुछ तो बात जरूर है। उसने सोचा।
"क्या उसने कुछ कहा या बदतमीजी की?" अर्चना ने चपरासी की तरफ इशारा करते हुए पूछा।
"नो मैम।" फिर वही छोटा-सा जवाब मिला।
"फिर क्या बात है बेटा। सब बच्चे खेल रहे हैं। आपका भी मन पढ़ने में नहीं है, फिर भी जबरदस्ती यहाँ बैठे पढ़ रहे हो?" अर्चना अब सोच में पड़ गई थी।
"मैम! पापा कहते हैं कि अगर पढ़ाई कम करूँगा, और मार्क्स कम आए तो बड़े हो कर चपरासी ही बनना पड़ेगा।"
बच्चे की आँखों में पानी तैर गया था और अर्चना की आँखों में भोले मासूम बच्चे पर पढ़ाई व कॅरियर का बोझ लादने वाले बाप के लिए गुस्सा।
*******
मैं इस रचना के बहाने कुछ कहना चाहता हूँ।
जब हम कोई कथ्‍य चुनते हैं, तो उसमें आने वाले मूल्‍यों, चरित्रों,वर्गों आदि के बारे में हमें पर्याप्‍त रूप से सर्तक रहना चाहिए। यह ध्‍यान रखे जाने की बात है कि कहीं हम किसी एक का समर्थन करते हुए किसी दूसरे की हेटी तो नहीं कर रहें। कोई ऐसी बात तो नहीं कह रहे हैं, जो उसके पक्ष में नकारात्‍मकता के साथ आ रही हो।
दरअसल यह रचनाकार की विचारधारा, सोच और अपने परिवेश को देखने के नजरिए पर भी निर्भर करता है। रचनाकार किस वर्ग विशेष (सामाजिक-आर्थिक) से आता है, उस पर भी निर्भर करता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि बिरले रचनाकार ही होंगे, जो लेखन करते समय इन सब बातों का ध्‍यान रख पाते हैं। या यूँ कहें कि ईमानदार रह पाते हैं। जो रह पाते हैं, उनका लेखन ही उत्‍कृष्‍ट श्रेणी में आ पाता है। (कुमारसम्‍भव इसे स्‍वयं पर टिप्‍पणी न मानें। यह सबके लिए कहा गया है।)
अब इस रचना की बात करें।
निसंदेह रचनाकार ने एक ऐसे पहलू को छुआ जो अनदेखा रहा आता है। बच्‍चों पर पढ़ाई,परीक्षा और अधिक अंक लाने का दबाव दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इसमें हमारी रोजगार व्‍यवस्‍था, शिक्षा व्‍यवस्‍था और सामाजिक-आर्थिक संरचना का भी बड़ा हाथ है। बहरहाल इस पर अलग से तमाम चर्चाएँ हो सकती हैं। रचनाकार ने इस बात को सामने रखने की सफल कोशिश की है। पर जहाँ वे चूक रहे हैं, वह है प्रतीक का उपयोग।
उन्‍होंने प्रतीक के तौर पर ‘चपरासी’ का उपयोग किया है। इस संदर्भ में निम्‍न बातों पर ध्‍यान दिया जाना चाहिए :
1. यह सही है कि एक समय था, जब कम पढ़े-लिखे या निरक्षर व्‍यक्ति को नौकरी के नाम पर ‘चपरासी’ की (या उसके समकक्ष पद) नौकरी ही मिल पाती थी।
2. लेकिन अब परिदृश्‍य बदला है। रोजगारों की कमी और साक्षरों की बढ़ती संख्‍या के कारण अब ‘चपरासी’ के पद के लिए भी पीएच.डी. धारकों के आवेदन आते हैं। ग्रेजुएट और पोस्‍ट ग्रेजुएट डिग्री धारक ‘चपरासी’ तो बहुतायत मिल ही जाएँगे। परीक्षा में उनके नंबर भी अच्‍छे खासे रहे होंगे।
3. आजकल दफ्तरों और स्‍कूल आदि में भी ‘चपरासी’ की अवधारणा और पद नाम बदला है। वह केवल साफ-सफाई करने वाले और पानी पिलाने वाले व्‍यक्ति नहीं रहे हैं। उन्‍हें कार्यालय-सहायक कहा जाने लगा है। वे काम भी उस तरह के करते हैं।
4. इस रचना में जिस तरह से ‘चपरासी’ का जिक्र आया है, वह उसके काम तथा करने वाले व्‍यक्ति के लिए थोड़ा-सा असम्‍मानजनक है। इसी तरफ इशारा करते हुए अर्चना तिवारी ने यह सुझाव दिया है कि ‘चपरासी’ की जगह किसी और व्‍यक्ति को दिखाया जाए।
5. शिक्षिका बच्‍चे के प्रति जितनी संवेदनशील है, ‘चपरासी’ के प्रति उतनी ही अधिक असंवेदनशील। बिना सोचे-समझे चाइल्‍ड अब्‍यूजिंग के बात सामने रख दे रही है। हालांकि उसे सीधा आदमी कहकर बचाव की कोशिश अवश्‍य है। (अपरोक्ष रूप से यह रचनाकार की सोच से आया है।) पर कथा में इस बात का इस तरह से आना भी एक तरह से चरित्र पर ‘आरोपित’ करना है।
6. कथा अंत में यह बात स्‍थापित करती है कि बच्‍चे पर कैरियर के बहाने पढ़ाई का अनचाहा बोझ डाला जा रहा है। लेकिन वह अपरोक्ष रूप से कहीं यह भी स्‍थापित कर रही है कि ‘चपरासी’ का काम न तो सम्‍मानजनक है और न ही वह सम्‍मान पाने लायक। वह हेय दृष्टि से ही देखे जाने के योग्‍य है। इतना ही नहीं वह चाइल्‍ड अब्‍यूजिंग करेगा,यह भी सोचा जा सकता है।

अब पाठक भी सोचें और कुमारसम्‍भव जी भी। क्‍या इस कथ्‍य को और किसी तरीके से कहा जा सकता है?

No comments:

Post a Comment

लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है। यह कथ्‍य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, स...