Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल -20 (भाग-एक)

यह केवल एक कथ्‍य का अंश भर है। चौपाल के लिए आया है। लेखक को लगता है कि इससे लघुकथा बन सकती है। पर उसे सूझ नहीं रहा है कि अंत कैसे किया जाए।
पर इस बार मैंने लेखक से इस बारे में कोई बातचीत नहीं की।सिर्फ यह कहा कि अभी यह लघुकथा नहीं बनी है।हालांकि मेरे सम्‍पादक मन में सवाल भी थे और दो-तीन सुझाव भी। फिलवक्‍त अपनी तरफ से कोई सुझाव नहीं दिया। सोचा, इस बार यह काम औरों को सौंप दिया जाए।
इस कथ्‍यांश में मैंने लेखक की सहमति से केवल एक-दो छोटे मोटे परिर्वतन किए हैं। जिन्‍हें अनदेखा किया जा सकता है। बाकी लेखक का ही मूल है।
अब आप लेखक से सवाल भी पूछें। लेखक को सुझाव भी दें। जाहिर है सवालों का जवाब देने के लिए फिलहाल लेखक मौजूद नहीं होगा। तो आप में से जिस किसी के पास भी उस सवाल का जवाब हो, वह स्‍वयं को इसका लेखक मानकर जवाब दे सकता है।
हाँ एक बात नोट करने लायक है कि ये लेखक चौपाल पर पहली बार प्रस्‍तुत हो रहे हैं।
सुबह की धूप : लेखक का नाम बाद में
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खुद को भूली वो जब दिन भर के काम निपटा कर अपने आप को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बंद करते ही उसके अंदर का स्व जाग जाता। स्‍व पूछता, " तुम कौन हो? तुम्हारा है क्या।"
उसका एक ही जवाब होता, "मुझे कुछ नहीं चाहिए। कभी ना कभी तो मेरा भी वक्त आएगा।"
उसे याद है। वह अपने छोटे से घर की खिड़की के पास हमेशा डेरा डाले रहती। हाथ में स्‍कूल की पुस्तक और बाहर के आंगन का सारा नजारा उसका अपना होता। कभी ढेर सारे तोते आ बैठते अमरुद पर। खूब शोर मचाते। कभी-कभी चिड़िया आ बैठती मुंडेर पर। वो दौड़कर दाना लाती। मगर जैसे ही बिखेरती वो फुर्र से उड़ जाती। मगर फिर धीरे-धीरे उनकी दोस्ती हो गई थी। घर में सिर्फ़ बाबा थे जो काम पर निकल जाते। माँ तो थी ही नहीं जो उसे टोकती। पेड़ों-पक्षियों के बीच कितना उन्मुक्‍त जीती थी वह। सोती भी तो खिड़की के नीचे ही बिस्तर लगाकर। आँख खुलती भी उससे छनकर आने वाली रोशनी से तब, जब पक्षियों का झुंड गुजरता था शोर मचाते हुए उसके सामने से।
" क्या हुआ रमा? नींद में बड़ा हँस रही हो। कुछ सपना देखा है क्या। " किसन ने उसे हिलाते हुए पूछा।
" नहीं तो! नहीं तो! "
" तुम भी ना पता नहीं किस दुनिया में जीती हो," उठो अब भोर होने को है।
" हाँ ! किसन मैंने सपने में उस खिड़की से बगुलों का एक झुंड का झुंड हवा में उन्मुक्त उड़ते देखा।" अंगड़ाई लेते रमा उठ खड़ी हुई।
" अब ज्यादा उड़ो मत। ढेर सा काम पड़ा है।" किसन ने झल्लाते हुए कहा।
उसने अपनी अस्त-व्यस्त साड़ी को ठीक किया। खिड़की से छनकर आती सुबह की धूप को प्रणाम किया। और फिर एक निर्णय के साथ बाहर को निकल पड़ी।

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