Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-17 (भाग-एक)

यह लघुकथा एक ऐसे रचनाकार की है, जो लघुकथा में जाना-पहचाना है। उसने यह रचना अपनी ही वॉल पर लगाई थी। लगाते ही हमारी नजर में आई। हमें लगा कि इसे तो चौपाल पर होना चाहिए। तब तक शायद इसे चार-पाँच लोगों ने इसे देखा था। हमने रचनाकार से अनुरोध किया कि चौपाल पर आइए। वे सहर्ष तैयार हो गए।
बहरहाल जो जानते हैं कि रचनाकार कौन है, उनसे अनुरोध है कि नाम को तब तक अपने पास रखें जब तक कोई आरटीआई एक्‍ट के तहत आपसे माँग न बैठे।🤗
रचना चंद मिनटों की है। पर इतने कम समय में भी उसमें जीवन के कितने सारे रंग समेट लिए हैं। क्‍या वे आपको नजर आ रहे हैं ? 🤔
ख़लिश : रचनाकार का नाम बाद में
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दोपहर थी लेकिन आकाश में छाए बादल भोर का आभास करा रहे थे। मैं खिड़की के पास बैठी रेडियो के गीतों के साथ इस मोहक नज़ारे का आनंद ले रही थी।
तभी मेरी निगाह बाउंड्री के बाहर एक युवक पर पड़ी। वह एड़ियाँ उचकाकर गमले से पौधे की टहनी निकालने की कोशिश कर रहा था। अक्सर लोग छोटे पौधों की कलम लेते ही रहते हैं। तभी उसने गमले से पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। पौधा उखाड़ते समय उस गमले के साथ दो गमले और भरभरा कर नीचे आ गिरे।
“अरे कलम चाहिए थी तो ले लेते। तुमने तो पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। और..और ये गमले भी गिरा दिए!“ मैं जैसे उस पर फट पड़ी।
“दीदी हम जाने नहीं थे। हमें लगा गमले में कई पौधे हैं...गलती हो गई...हम माफ़ी मांगते हैं।“ वह हाथ जोड़ने लगा। उसके मुख से शब्द अटक-अटक कर निकल रहे थे।
तब तक मेरी चिल्लाहट सुन कर भाई भी बाहर आ गया। गली से गुजर रहे लोग भी रुक कर देखने लगे। देखते-देखते दस-बारह लोग इकठ्ठा हो गए।
“चोरी कर रहे थे?” भाई ने घुड़कते हुए उसकी कमीज का कालर पकड़ लिया।
“ नहीं, हम चोर नहीं हैं हमारा विश्वास कीजिए, हमसे पहली बार ऐसा हुआ।“ यह कहते भर में उसकी कनपटी से पसीना बहने लगा।
मैंने देखा युवक साधारण किन्तु साफ़-सुथरे कपड़े पहने था। पहनावे से किसी दूसरे अंचल का लग रहा था।
“अरे जाने दो उसे।“ दरवाजे तक आ गए पिता जी ने भाई को रोका।
युवक चला गया। गली में जमा हुए लोग भी चले गए। हम भी अंदर आ गए। बाहर का नज़ारा अभी भी मोहक था। रेडियो पर गीत भी बज रहा था। बस मन कहीं चला गया था।

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