Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल - 4 (भाग-एक)

प्रस्‍तुत है इस क्रम में यह लघुकथा।
लेखक ने मेरे कुछ सुझावों के आधार पर इसमें छोटे-मोटे संशोधन किए हैं, अन्‍यथा इसे मूल रूप ही माना जा सकता है। फिलहाल इससे अधिक कुछ नहीं।
तो आइए इस पर चौपाल में चर्चा करें।
वापसी : लेखक का नाम बाद में उजागर होगा
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सुबह जब दूध वाले ने बताया कि दिनाकरण सात-आठ दिन पहले बैंगलोर से वापस आ गये हैं तो रामबाबू चिंतित हो उठे।
दिनाकरण सेवा निवृत्त थे। पत्नी के जिन्दा रहने तक वह कभी-कभी बेटा बहू के पास रहने चले जाते थे लेकिन पत्नी की मृत्यु के बाद से वे वहाँ नहीं गए। बेटा उनसे यहाँ की सब अचल संपत्ति बेच कर अपने संग रहने की जिद करता रहता था। लेकिन दिनाकरण उसके साथ जाकर रहने के लिए तैयार नहीं होते थे। दिनाकरण के दोस्त भी अकसर अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें संपत्ति न बेचने की सलाह देते रहते थे। लेकिन तीन-चार माह पहले जब वह बीमार पड़े तो एक दो कमरे के छोटे से मकान को छोड़ वह सारी अचल संपत्ति बेचकर बेटे के साथ चले गए।
रामबाबू जल्दी से तैयार होकर दिनाकरण के यहाँ जा पहुँचे। दिनाकरण के चेहरे पर उदासी छाई थी, “मैंने तुझे कितना समझाया था। जमीन-जायदाद मत बेच, अपनी सारी जमा पूँजी सम्हालकर अपने हाथ में रख। आखिर बहू-बेटे ने सब कुछ हथिया कर निकाल दिया न घर से!” रामबाबू उन्हें देखते ही एक ही साँस में कह गए।
“अरे, यार ऐसा कुछ नहीं है।” दिनाकरण ने धीमी आवाज में उत्तर दिया।
“अरे, तू बस रहने दे! तेरे लटके हुए चेहरे से सब साफ पता चल रहा है। ” रामबाबू ने दिनाकरण को झिड़कते हुए कहा।
“मेरी बात तो सुन, जैसा तू सोच रहा है वैसा कुछ भी नहीं है।” दिनाकरण ने फिर कहा।
“तो फिर कैसा है?” रामबाबू ने व्यंग्‍य से पूछा।
“मैं तो वहाँ बहुत खुश था। बहू भी मेरा पूरा ध्यान रखती थी।”
“जब वहाँ इतना खुश था तो फिर इतनी जल्दी क्यों लौट आया?” रामबाबू ने थोड़ी तल्खी से पूछा।
“क्या करूँ? वहाँ तुम लोगों की बहुत याद रही थी। किसी भी काम में मन नहीं लगता था। बहू और बेटे को बड़ी मुश्किल से मनाकर तुम लोगों से मिलने चला आया हूँ।” दिनाकरण ने उत्तर दिया।
“तो फिर ये मुँह क्यों लटका रखा है?” दिनाकरण की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखते हुए रामबाबू ने पूछा।
“क्या करूँ, कल से बच्चों की बहुत याद आ रही है।” दिनाकरण ने दुःखी मन से कहा

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लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

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