Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल -13 (भाग-दो)

‘शुकराना’ लघुकथा Rashmi Pranay Wagle की है।
लघुकथा की प्रस्‍तुति पर तरह-तरह के कयास लगाए गए कि यह रचना किसकी हो सकती है। चूँकि पहले दो और बाद में तीन और नाम ले लिए गए । उधर इस पर अपरोक्ष व्‍यंग्‍य कसते हुए सलिल वर्मा ने इसे अपनी रचना घोषित कर दिया। सच्‍चाई हम दोनों या फिर रश्मि जी जानती थीं, इसलिए मैंने भी इस झूठे सच को थोड़ा और आगे बढ़ाया।
दरअसल कयास लगाने में कोई हर्ज नहीं है। पर अगर कयास लगाकर नाम उजागर किया जा सकता है या हो जाता है तो फिर चौपाल पर ईमानदार समीक्षा नहीं हो पाएगी, मेरा ऐसा मत है। जिन भी दो या तीन लोगों के नाम संभावना के तौर पर ले लिए जाते हैं, उनकी मित्र मण्‍डली के सदस्‍य संभवत: सच बात कहने में कतराते हैं। वे रचनाकार की तथाकथित वरिष्‍ठता या कनिष्‍ठता से आतंकित होते हैं। वरिष्‍ठता से इसलिए कि अमुक का इतने बरस का अनुभव है, अब उनकी रचना पर प्रतिकूल टिप्‍पणी कैसे की जाए। और कनिष्‍ठता से इसलिए कि तथाकथित ‘बेचारा’ रचनाकार प्रतिकूल टिप्‍पणी से निरुत्‍साहित होकर कहीं लेखन से ही ‘आत्‍महत्‍या’ न कर बैठे। यह मेरा ‘मत’ नहीं है, बल्कि लघुकथा के तमाम समूहों में बिताए गए और बिताए जा रहे समय का कमाया गया ‘अनुभव’ है।
चौपाल पर इस अभ्‍यास का उद्देश्‍य लघुकथा के लेखक का नाम बूझना नहीं है। इसलिए कृपया ऐसे प्रयास से बचें। चौपाल का प्रमुख उद्देश्‍य है किसी भी नाम से परे, रचना के गुण-दोषों पर बिना किसी लाग-लपेट और आडम्‍बर के तार्किक बात करना।
रश्मि जी ने सभी प्रतिक्रियाएँ पढ़ीं और उनका संज्ञान लिया। वे अरुण कुमार गुप्‍ता जी के सुझाव पर अपनी रचना में //उसने चौंककर युवक को देखा। // की जगह //युवती ने चौंककर युवक को देखा।// करना चाहती थीं। उन्‍होंने मुझसे इस संदर्भ में चर्चा की। अरुण जी की यह बात तो सही है कि इससे वहाँ पर स्‍पष्‍टता आ जाती है। पर मेरा कहना है कि अगर आप लघुकथा को ध्‍यान से पढ़ेंगे तो उसने, उसका, उस आदि शब्‍दों का प्रयोग लघुकथा की नायिका के लिए ही किया गया है। युवती कह देने से कथा का तारतम्‍य बाधित होता है। हाँ, आरम्‍भ में उसे ‘वह’ कहकर संबोधित किया गया है। एक जगह बीच में युवक के लिए ‘उसका’ शब्‍द का उपयोग किया गया था। उसे अब सम्‍पादित कर दिया गया है। दूसरी बात निश्चित ही उस जगह पर पढ़ते हुए क्षण भर का अटकाव है। जो एक सचेत पाठक को रुकने के लिए बाध्‍य भी करता है। इसलिए इसे सकारात्‍मक रूप में लिया जाना चाहिए। लेखिका मेरे तर्क से सहमत हैं, अत: उन्‍होंने इसमें बदलाव नहीं किया है।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी ने ‘शुकराना’ और ‘शुक्राना’ पर सवाल उठाया था। बहरहाल लेखिका ने तो इस बारे में कुछ नहीं कहा है। पर मेरा कहना है कि बोलचाल की भाषा में ऐसे भदेस शब्‍दों का प्रचलन बहुतायत में है। जैसे मैं स्‍वयं के लिए ‘अपन’ का उपयोग करता हूँ। निश्चित ही ‘शुकराना’ या ‘अपन’ हिन्‍दी या उर्दू के किसी शब्‍दकोश में नहीं मिलेंगे। पर लोक के बोलकोश में मौजूद हैं। (यह उल्‍लेखनीय है कि ‘अपन’ का उपयोग ‘जनसत्‍ता’ के संस्‍थापक सम्‍पादक प्रभाष जोशी अपने लोकप्रिय कालम ‘कागद कारे’ में अक्‍सर ही करते थे। अपन ने भी वहीं से सीखा।)
अर्चना तिवारी ने इस अधमरी अवधारणा के सवाल को फिर से उठाया था कि इसमें तो कोई विसंगति नहीं है। तो यह लघुकथा है या नहीं ? बहरहाल जवाब भी उन्‍होंने खुद ही दे दिया। भगीरथ परिहार जी के कहे को सामने रखकर। अन्‍य रचनाकारों ने भी इस पर अपनी राय रखकर महत्‍वपूर्ण हस्‍तक्षेप किया।
इस सवाल पर स्‍वयं रश्मि जी का कहना है कि, ‘‘मेरा यह मानना है कि क्षण या घटना के बिना तो लघुकथा संभव भी नहीं है। वो बीज है। लेकिन हमेशा ही विसंगति ही उठायी जाए यह तो अनिवार्य नहीं न। हम सुसंगति अथवा कोई सुखद अनुभव /घटना पर भी तो लघुकथा लिख सकते हैं। कोई व्यंग्‍य या कटाक्ष दिमाग में आया हो तो क्या उस पर लघुकथा नहीं बन सकती है ? मुझे लगता है बन सकती है। बस हमें अपनी बात सरल,सहज और प्रभावी भाषा में कहते आना चाहिए।’’
कपिल शास्‍त्री ने हल्‍के से यह बात उठाई है कि कुछ लोग शायद इसके अंत में लेखकीय प्रवेश का आरोप भी लगाएँ। लेकिन मेरा मानना है कि पूरी कथा ही लेखक की नजरों से ही कही जा रही है। इसलिए वह तो वहाँ मौजूद ही है।
शुकराना : रश्मि प्रणय वागले
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त्यौहार का मौसम था, शाम को फूल वाले की दुकान पर बहुत भीड़ थी। वह भीड़ से हटकर थोड़े पीछे की तरफ खड़ी थी। चमकती गोल बड़ी बिंदी और काजल से भरी हुई खूबसूरत आँखें, सुर्ख लिपस्टिक उसके साँवले चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थी।
"चार बड़े हार, दो छोटे हार और बीस रुपये के फूल पैक करना दो।" उसके पति ने फूल वाले से कहा। फूल वाला बड़ी कुशलता से हर एक का आर्डर पूरा कर रहा था।
तभी बाइक पर एक युवक आया। युवक ने बाइक पर बैठे-बैठे ही फूल वाले को इशारा किया। शायद पहले से आर्डर तैयार था। युवक ने अपना पैकेट लिया, और जाने को हुआ। तभी युवक की निगाह उस पर पड़ी। वह दुकान पर करीने से सजा कर रखी,मोगरे की खूबसूरत लड़ियों को अपलक निहारे जा रही थी। उसका पति अब भी व्यस्त था।
युवक पलटा और ऊँची आवाज में फूल वाले से बोला, ‘‘अरे, भैय्या वो क्या बोलते हैं उसको..वो मोगरे के फूल, बालों में लगते हैं...।"
" हूँ गजरा..? " अधूरा वाक्य फूल वाले ने पूरा किया, "दूँ क्या सर ? "
" अरे नहीं आज रहने दो...देर हो गई है। कल तैयार रखना ले जाऊँगा।"
उसने चौंककर युवक को देखा। पल भर के लिए दोनों की नजरें मिलीं। युवक मुस्कराकर चला गया। उसका पति भी पैसे देकर मुड़ा। उसकी तरफ देख, जैसे उसे भी कुछ याद आया। उसकी तरफ देखते हुए फूल वाले से बोला, "अरे हाँ भैया दो गजरे भी पैक कर दो। इन्‍हें भी तो बहुत पसंद हैं न मोगरे की लडि़याँ।"
उसके दिल में पति के लिए उमड़ रहे प्‍यार के साथ, उसकी आँखों की भाषा पढ़ने वाले उस अजनबी के लिए अनचाहे ही शुकराना घर कर गया था।

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