Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-12 (भाग- दो)

यह लघुकथा Arun Kumar Gupta की है। लघुकथा पर आई पाठकीय प्रतिक्रियाओं का संज्ञान लेकर उन्‍होंने एक टिप्‍पणी लिखी है।
रचनाकार का मत :
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मेरी लघुकथा को अपना अमूल्य समय देने के लिए उन सभी का आभार जिन्होंने इस लघुकथा पर अपने विचार पोस्ट किए है या इसे लाइक किया है।
चौपाल के संयोजक राजेश जी का भी आभार जिन्होंने अपने सुझावों से लघुकथा को नए रूप में ढालने में मदद की।
लघुकथा पर आई टिप्पणियों में मुख्यतः निम्न बिन्‍दु सामने उभर कर आए हैं :
1. कथा थोड़ी नकारात्मकता का भाव लिए है।
2. लघुकथा है या लघु कहानी
3. शब्द कम करने की गुंजाइश
कुछ प्रश्न भी आए हैं :
• क्या माँ अनपढ़ है जो उसने चौंककर बेटे की तरफ देखा और गौतम की कथा को अनाप- शनाप कह कर नकारना ।
• गौतम बुद्ध की कथा बहू ने जरूर सुनी होगी
• बहू शायद डरी हुई है या उसके अन्दर असुरक्षा की भावना घर कर गई है।
सास-बहू के बीच के मुद्दों को उठाना या इनके कारणों की खोज में जाना मेरी लघुकथा का उद्देश्य नहीं है। कथा यह मानकर लिखी गई है कि सास और बहू के सम्‍बंधों में गाँठ है जिसका कारण कुछ भी हो सकता है। जैसे सास-बहू की सोच में अन्‍तर, वर्चस्व की लड़ाई, सुनी-सुनाई बातों से एक-दूसरे के प्रति दुर्भावना पाल लेना या असुरक्षा की भावना इत्यादि।
सुलक्षणा का बेटे की ओर चौंककर देखना इस बात को दर्शाता है कि वह अपने मन के किसी कोने में यह तो अवश्य मानती है कि उसका अपनी सास के प्रति बर्ताव ठीक नहीं है। लेकिन उसे खुले मन से स्वीकार नहीं कर पाती है जो मानव का एक सामान्य गुण है। इसीलिए बेटे की ओर चौंककर देखना यह दर्शाता है कि शायद बेटा उस पर व्यंग्‍य कर रहा है। जबकि बेटे के मन में ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तो बस पढ़ रहा है। (सलिल वर्मा ने अपनी टिप्‍पणी में इसे ही ‘चोर की दाढ़ी में तिनका कहा है। - राजेश उत्‍साही)
जब कोई व्यक्ति किसी बात को लेकर निश्चिन्त होता है कि गलत होने के बाद भी वह जो कर रहा है वह सही है उस दशा में उस व्यक्ति का किसी सही बात को अनाप शनाप कह देना एक आम प्रवृति है।
दूसरी बार बेटे की ओर चौंककर देखना इस बात का द्योतक है कि उसके मन में सास के साथ अपने बर्ताव को लेकर दोषी मानने की भावना और ज्यादा प्रबल हो गई है।
लघुकथा को एक निश्चित शब्दों की सीमा में बाँध देना शायद उसका दम घोंटने जैसा होगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे यह सही है कि लघुकथा को कम से कम शब्दों में ही लिखा जाना चाहिए। लेकिन एक लघुकथा शब्दों की किस सीमा तक लघुकथा रहती है और कितने शब्दों के बाद लघु कहानी बन जाती है इस बारे में कोई भी निश्चित राय नहीं है।
मैंने कथा को ज्‍यों का त्‍यों रखा है। हाँ, कथा की अंतिम पंक्ति में जरा सा बदलाव किया है।
अरुण जी की टिप्‍पणी से उभरे दो सवालों पर मेरी राय :
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लघुकथा में शब्‍दों की संख्‍या तो कभी भी निर्धारित नहीं की जा सकती।
मेरा मानना है कि लघुकथा में कहा जाने वाला कथ्‍य ही उसकी शब्‍द संख्‍या स्‍वयं तय करता है। दरअसल जिसे हम शब्‍दों की संख्‍या कम करना कहते हैं,वह भाषा के स्‍तर पर उसमें कसावट का मामला है। अनावश्‍यक शब्‍दों या वाक्‍यों को हटाने की बात है।
जहाँ तक लघुकथा और लघु कहानी में अंतर की बात है तो वह भी कथ्‍य के विस्‍तार से तय होता है या होगा। अमूमन लघुकथा किसी घटना विशेष के एक या दो प्रसंगों तक सीमित होती है। लेकिन लघु कहानी या कहानी में ऐसे कई प्रसंग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए अगर हम इसी लघुकथा की बात करें, तो इसमें सास-बहू के बीच घटने वाले दो-तीन प्रसंगों की चर्चा और हो जाए, तो फिर यह लघुकथा नहीं रहेगी।
बुद्ध की वापसी : अरुण कुमार गुप्‍ता
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सास भरसक घर के कामों में हाथ बटाने का प्रयास करती लेकिन फिर भी बहू सुलक्षणा के तानों से बच नहीं पाती थी। कुछ दिन पहले लकवा मार जाने के कारण सास बिस्तर पर थी। माँ की देखभाल के लिए बेटे ने एक नौकरानी को काम पर रख दिया था। इससे सुलक्षणा पर काम का बोझ तो नहीं पड़ा लेकिन नौकरानी के खर्चे को लेकर सास को जब-तब उलाहना देने के लिए उसे एक मुद्दा अवश्य मिल गया।
नौकरानी सास की दवा लेने के लिए बाजार गई थी। सुलक्षणा ने रसोई से ऊँची आवाज में सास को सुनाते हुए कहा, “एक तो इनकी दवा-दारु के खर्चे से पहले ही कमर टूटी थी, अब नौकरानी का खर्चा और उठाओ।”
तभी उसे अपने बेटे की किसी से मोबाइल पर बातें करने की आवाजें सुनाई पड़ी। उसका गुस्सा सास की तरफ से बेटे की ओर मुड़ गया, “कभी पढ़ भी लिया कर! जब देखो मोबाइल से चिपका रहता है। अगर तुरंत किताब लेकर डाइनिंग टेबल पर आकर नहीं बैठा तो वहीं कमरे में आकर तेरे कान खींचती हूँ।’’
डाँट खाकर बेटा डाइनिंग टेबल पर आकर बैठ गया और जोर-जोर से किताब पढ़ने लगा। सुलक्षणा भी सब्जियाँ काटने के लिए वहीं आकर बैठ गई। बेटे द्वारा पढ़े गए कुछ शब्द उसके कानों में पड़े, “गौतम की दृष्टि सड़क पर जा रहे एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जिसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे और शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह बड़े कष्ट के साथ सड़क पर चल रहा था। पूछने पर सारथी ने बताया कि राजकुमार ये वृद्ध है। एक दिन हम सभी को इसी तरह वृद्ध होकर कष्ट भोगना पड़ता है।”
सुलक्षणा ने चौंककर बेटे की ओर देखा लेकिन वह तो पढ़ने में व्यस्त था। फिर मन ही मन सोचते हुए कि पता नहीं क्या अनाप-शनाप पढ़ता रहता है वह काम में व्यस्त हो गई।
कुछ देर बाद बेटे द्वारा पढ़े गए शब्द फिर उसके कानों में पड़े, “राजकुमार ने एक व्यक्ति की ओर जिसकी साँस तेज चल रही थी, बाँहें सूख गई थीं; पेट फूला था; चेहरा निस्तेज था और जो दूसरे के सहारे बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था इशारा करते हुए सारथी से पूछा कि यह कौन है?”
सुलक्षणा ने अचकचाकर फिर बेटे की ओर देखा लेकिन वह पूरे मनोयोग से पढ़ने में व्यस्त था। इसी बीच सुलक्षणा का ध्यान आँगन से आने वाली खटर-पटर की ओर गया। उसने गर्दन घुमाई तो देखा कि उसकी सास लाठी के सहारे घिसटती हुई शौचालय की ओर जा रही थी। कुछ सोचकर वह अपने स्थान से उठने लगी, लेकिन तब तक उसका बेटा आँगन पार कर दादी की मदद के लिए पहुँच चुका था।

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