Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-21 (भाग-दो)

प्रस्‍तुत रचना Rashmi Pranay Wagle की है। 

जैसा कि मैंने इसे प्रस्‍तुत करते हुए कहा था, ‘यह रचना बिलकुल अलग ही तेवर की है। इसके कथ्‍य और उसके प्रस्‍तुतिकरण ने मुझे आकर्षित किया। अमूमन ऐसे कथ्‍य से बचने की कोशिश होती है। या फिर उन्‍हें अतिरेक में उठाया जाता है। जबकि जरूरत होती है कि उन्‍हें प्रस्‍तुत करते समय एक संतुलन रखा जाए। मुझे इसमें वह नजर आया।’ 

इस रचना पर जिस तरह का विमर्श हुआ, उसे देखकर लगा कि यह अपने उद्देश्‍य में सफल रही है। मेरे मत में एक सफल रचना वही है, जो पाठकों के मन में तमाम तरह के किन्‍तु-परन्‍तु जगाए। उन्‍हें यह सोचने पर मजबूर करे कि अगर ऐसा होता तो क्‍या होता, और नहीं होता तो क्‍या होता। बहरहाल मूल रचना में मैंने काँट-छाँट की थी। अन्‍य बातों के अलावा मैंने रश्मि जी की सहमति से चार मुख्‍य परिवर्तन किए थे : 

1. रचना के आरम्‍भ में ही आई पंक्ति // देश का माहौल खराब हो चला था। छोटी सी बात भी चिंगारी बनकर साम्प्रदायिक दंगे की आग भड़का देती थी..// को हटाया था।
2. मोहल्‍ले में आने की अवधि को आठ-दस महीने से घटाकर तीन-चार महीने किया था। 
3. न्‍यौता की जगह बुलऊआ शब्‍द प्रयोग किया था। 
4. रचना का अन्‍त पहले इन पंक्तियों के साथ हो रहा था // उसके मन में ईश्वर के प्रति आस्था। उसकी सच्ची श्रद्धा, समाज द्वारा बनाए आवरणों, सरहदों और मानव निर्मित तमाम ‘पूर्वग्रहों‘ पर भारी पड़ रही थी। उसके पैरों में आलता का सुर्ख रंग,मानो आने वाले शुभ समय का संकेत दे रहा था।// इसे बदला। 

रश्मि जी ने चौपाल पर हुए विमर्श को ध्‍यान में रखकर यह टिप्‍पणी की है : 
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मैंने सभी की टिप्पणियाँ ध्यान से पढ़ीं। सभी ने विमर्श में गंभीरता से भाग लिया। अर्चना तिवारी जी ने काफी हद तक रचना के मर्म को समझने की कोशिश की। सभी का आभार। किन्‍तु फिर भी मैं इसमें कोई अन्य परिवर्तन नहीं करना चाहती हूँ। क्योंकि ... 

1. मुझे लगता है आपने,जो सबसे जरूरी सम्पादन था ... (देश का माहौल खराब हो चला था. छोटी सी बात भी चिंगारी बनकर साम्प्रदायिक दंगे की आग भड़का देती थी.. ) इन दो पंक्तियों को हटा कर वो पूरा कर दिया है। वाकई इन दो पंक्‍तियों को यदि न हटाते तो कुछ भी अनकहा न रह जाता। 

2. लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से हम कितने पूर्वाग्रही हो चुके हैं। मैंने कहीं भी रचना में उस महिला के धर्म / जाति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। मात्र आभास पैदा किया है,कि वह मुस्लिम है। लेकिन वो सिक्‍ख भी हो सकती है। सिक्ख महिलाएँ भी आलता-सिन्‍दूर नहीं लगातीं। चटक शोख,कशीदाकारी-गोटे आदि से सजाए हुए वस्त्र /दुपट्टे पहनती हैं। लेकिन आज के तथाकथित माहौल में शक,अविश्वास,भय का जो जहर फैला हुआ है उसमें लगभग सभी ने मान लिया कि वह महिला मुस्लिम ही है। 

3. मेरा उद्देश्‍य था...कि हमारे अन्‍दर कितने पूर्वाग्रह पलते हैं, शायद मैं वह बतलाने में कामयाब रही। 

4. अब रचना को लेकर .. (अ) कि वह सीधे पूजा में जाकर हल्दी कुमकुम चढ़ाती है। हो सकता हैं कि उसका अंतरजातीय विवाह हो। हो सकता है कि वह विवाहपूर्व हिन्‍दू हो। (ब) हो सकता है कि उसके परिवार ने उसे अपने पूर्व धर्म के रीति-रिवाज अपनाने/उनका पालन करने के लिए कभी मना न किया हो। 

5. बुलऊआ शब्द नया तो नहीं है। अपने यहाँ चलन में है। मैंने न्यौता लिखा था। लेकिन Kapil Shastri जी ने विस्तृत अर्थ बतलाया। मूलत: मुझे यहाँ ' बुलऊआ या न्यौता’ शब्द के प्रयोग से रचना की संवेदनशीलता और रचनात्मकता पर कोई फर्क पड़ेगा ऐसा नहीं लगा। 

अन्‍त में बस यही कहना चाहती हूँ कि कई बार परिस्थितिवश हम बहुत अधिक जजमेंटल हो जाते हैं, पूर्वाग्रही हो जाते हैं। इस कारण से अनेक अच्छे व्यक्ति, अच्छी बातें, विचार हम से दूर रह जाते हैं। 

तो लीजिए एक बार फिर से पढि़ए रश्मि प्रणय वाघले की लघुकथा : पूर्वाग्रह 
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उस परिवार को कॉलोनी में आए तीन-चार महीने से अधिक हो गए थे। पर अभी तक किसी से उनकी खास जान-पहचान नहीं हो पाई थी। बच्चे हों या बड़े, कभी-कभार हँस-बोलकर केवल एक औपचारिकता निभा लेते थे। झिझक,अनजाना संकोच न बोल कर भी बहुत कुछ कह जाता था। 

नवरात्र चल रहे थे। कॉलोनी की सारी सुहागिनों को सुगंधा ने भजन संध्या पर आने का बुलऊआ दिया। उसे बुलाऊँ या नहीं, इसी उहापोह में दो दिन निकल गए। फिर ‘सोचा जाने दो। कौन फ़ालतू का टेंशन ले। क्या फर्क पड़ता है नहीं बुलाया तो।’ 

नियत समय पर ढोल-मंजीरे के साथ माताजी के भजन गाए जाने लगे। धूप-लोभान की महक से घर ही नहीं बाहर का वातावरण भी महक उठा। माताजी की आकर्षक श्रंगारमय मूर्ति मन मोह रही थी। सुगंधा सुहागिनों को पाँव में आलता लगा रही थी। माथे पर कुमकुम लगाकर हाथ में माताजी का रक्षासूत्र बाँध रही थी। 

तभी चूड़ियों की खनक ने सभी का ध्यान खींचा। दरवाजे पर शोख रंग की सलवार-कमीज और सिर पर सलमा-सितारे से सजा दुपट्टा ओढ़े वो खड़ी थी। उसे देखकर सुगंधा सकपका गई। लेकिन उसने सहजता से भीतर आकर माताजी को प्रणाम किया। वहाँ रखा हल्दी-कुमकुम चढ़ाया। 

फिर बोली,"शायद आप व्‍यस्‍तता में भूल गई होंगी, मुझे बुलऊआ देना...। इसलिए मैं खुद ही चली आई। सोचा मातारानी से आशीर्वाद ले लूँ।’’ वह नजदीक ही बैठ गई। 

सुगंधा ने भी सहज होते हुए उसका स्वागत किया। फिर अपनी दूसरी सहेली को आलाता लगाने लगी। 

उसने धीरे से पूछा, " मुझे नहीं लगाएँगी ?" 

"अरे नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन वो आप...आपके समाज में....।" आगे के शब्द कह ही नहीं पाई सुगंधा। 

"अरे वो सब छोडि़ए.. वो तो है... लेकिन मैं भी एक सुहागिन हूँ। मैं मातारानी के सामने हाथ जोडूँ। गुरुद्वारे में मत्था टेकूँ। कुरान की आयते पढूँ ,या चर्च में जाकर प्रार्थना करूँ। अपने परिवार की सलामती दुआ मैं कहीं भी माँगू, वो सब पहुँचेगा तो सारा ऊपरवाले के पास ही न..।" 

सुगंधा उसके पैरों में आलता लगा रही थी। और आलते का सुर्ख रंग उसके सारे पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ रहा था। 

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