Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल – 3 (भाग-दो)

चौपाल की तीसरी लघुकथा ‘तितिलियों के रंग’ कानपुर की Seema Singh की है।
अपनी लघुकथा के अन्‍त से वे संतुष्‍ट नहीं थीं। कथ्‍य तथा प्रभावी प्रस्‍तुतिकरण के बावजूद अन्‍त ने मुझे भी निराश किया था। मैंने अन्‍त को प्रभावी बनाने में अपने स्‍तर पर मदद की। अन्‍तत: जो लघुकथा बनी वह चौपाल में प्रस्‍तुत की गई थी।
लघुकथा पर आई टिप्‍पणियों से यह जाहिर है कि उसे पाठकों ने भी पसन्‍द किया है। रचना का कथ्‍य विमर्श के लिए नए सवाल भी उठाता है। यह जरूरी नहीं है सब कुछ रचना में कहा जाए। अपनी कहन में रचनाकार को यह ताकत पैदा करनी होती है कि उसका लेखन वह बात भी कह पाए, जिसे उसने अप्रत्‍यक्ष रूप से कहा है। दरअसल पाठक को भी अपने में वह दृष्टि पैदा करनी चाहिए कि वह ‘पँक्तियों के बीच की जगह’ को भी पढ़ पाए।
एक सवाल का जवाब मैं सवाल के रूप में ही रखना चाहता हूँ। यह ठीक है कि इस तरह की पहलकदमी के लिए पुरुषों को आगे आना चाहिए। लेकिन वे अगर नहीं आ रहे हैं, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि महिलाएँ यह पहलकदमी नहीं कर सकतीं। दुनिया भर में चल रहे स्‍त्री विमर्श और कई आन्‍दोलन महिलाओं की पहलकदमी से ही सामने आए हैं। और फिर जिन अप्रत्‍यक्ष बेडि़यों को पुरुषों ने ही पहनाया है, उन्‍हें तोड़ने या खोलने की अपेक्षा हम उनसे ही क्‍यों करें ? अगर उन बेडि़यों को पहनने में हमारी ‘हाँ’ शामिल नहीं है, तो पूरी ताकत से ‘ना’ बोलें। घर में भी और बाहर भी। दबे स्‍वर में नहीं, बल्कि इस तरह की सबको साफ-साफ सुनाई और दिखाई दे।
प्रगतिशीलता व्‍यक्ति की उम्र नहीं बल्कि समय के सापेक्ष होती है। दादी या माँ को भी अपने विचारों को समय के साथ बदलने या बदलाव की शुरुआत करने का उतना ही अधिकार है जितना हिना को।
एक और बात। यह पुरुषों तथा महिलाओं दोनों को सम्‍बोधित है। पितृसत्‍तात्‍मक सोच निश्चित ही पुरुष समाज द्वारा प्रतिपादित की जाती रही होगी। लेकिन उसके नियम,कानून,कायदों आदि प्रावधानों को लागू करने, स्‍थापित करने और जीवित बनाए रखने में महिलाओं का भी हाथ है। हममें से कई लोग इसे बिना सोचे-विचारे एक परम्‍परा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाते रहे हैं। इसलिए केवल पुरुषों को ही नहीं, महिलाओं को भी इस सोच को पहचानने और उससे मुक्‍त होने की जरूरत है।
आपमें से कईयों को यह जानने की उत्‍सुकता भी होगी कि सीमा सिंह की रचना का मूल अन्‍त कैसा था। मुझे भी लगता है कि वह सबको जानना चाहिए। उससे यह समझने में भी मदद मिलेगी कि एक रचना में एक छोटा-सा बदलाव उसे कितने नए अर्थ और आयाम दे देता है।
यह था मूल रचना का अन्‍त...
// हिना ने एक आखिरी बार खुद को आईने में निहारा और पास ही रखा बुर्का पहन कर चेहरे पर नकाब बाँध लिया। दादी ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए अपने होठों पर फीकी सी मुस्कान चिपका ली, अब सिर्फ एक तितली दिख रही थी दूसरी काले नकाब के पीछे छुप गई थी। //
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इस प्रयोग के लिए लगातार लघुकथाएँ मिल रही हैं। कुछ साथियों को उनकी रचनाएँ सखेद वापस भी की हैं। उनसे नई रचनाओं की अपेक्षा है। अपेक्षा यह भी है कि इस प्रयोग के लिए ऐसी लघुकथाएँ भेजें,जिनका कथ्‍य कुछ अलग हो,नया हो। फार्मूला आधारित और जैसे को तैसा कथ्‍यों वाली रचनाओं से अपन दूर रहना चाहते हैं।
इनबॉक्‍स में रचनाएँ भेजते समय कृपया यह स्‍पष्‍ट लिखें कि यह ‘चौपाल’ के लिए है। रचना अप्रकाशित हो।
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सीमा सिंह ने उनकी लघुकथाओं पर जो टिप्‍पणियॉं आईं, उन्‍हें ध्‍यान में रखकर कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन किए हैं। प्रस्‍तुत है उनकी परिमार्जित लघुकथा...
तितलियों के रंग : सीमा सिंह
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"अरे पिंक नहीं, ये ऑरेंज कलर लगा न!" शीतल ने टोका।
हिना ने शीतल के हाथ में पकड़ी लिपस्टिक को गौर से देखा। फिर चहकते हुए बोली, " ओ हाँ, यही तो लगानी है!"
कुशल चित्रकार की तरह अपने मुखड़ों पर तरह-तरह के रंग लगाती लड़कियों को अमीना बी बड़े नेह से निहार रही थीं। चिढ़ाने की गरज से बीच-बीच में छेड़ती जा रही थीं, "अये हये! छोरियों, तुम तो यूँ सज रही हो जैसे सहेली का नहीं तुम्हारा खुद का ही ब्याह हो रहा है।"
"हमारी बेस्ट फ्रेंड है सरला! हमें भी तो सुन्दर दिखना है बड़ी बी। वरना ससुराल में हमारी दोस्त की नाक नहीं कट जाएगी?" शीतल ने पलकों पर मस्कारा लगाया था। सुखाने के लिए पलकें झपकाते हुए अपनी दोस्त की दादी को जवाब दिया।
"जो कहीं सरला के दूल्हे का दिल तुम पर ही आ गया तो? मेरी मानो, अब बस भी करो!" बड़ी बी भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। हिना ने दादी को घूरा। फिर बिना कुछ बोले आँखों ही आँखों में, माँ से शिकायत कर दी। माँ उसके ही उतारे हुए कपड़े तह करके रख रही थी। माँ भी बस शरारत से मुस्कुरा दी। बार-बार कुछ न कुछ ठीक करती जा रही लड़कियों को हिना की माँ ने टोका, "अब तैयार हो गई हो तो निकलो भी। गाड़ी कब से खड़ी है, क्या बारात के बाद पहुँचोगी ?"
घड़ी पर नजर पड़ते ही दोनों उछल पड़ीं, "चल-चल, जल्दी निकलें!" हिना को खींचती हुई शीतल बोली।
दादी और माँ ने फिर से बच्चियों को छेड़ा,"अरे मेरी गुलाबी और नारंगी तितलियों अब निकलो भी।"
हिना ने एक आखिरी बार खुद को आईने में निहारा। फिर पहनने के लिए बुर्के को उठाया और अनायास ही मायूस हो गई। उसकी यह मायूसी माँ से छुप नहीं सकी। वह पहनती उससे पहले ही माँ ने उसके हाथ से बुर्का वापस ले लिया। माँ की आँखों में जाने का इशारा था। हिना ने माँ के पीछे खड़ी दादी की तरफ देखा। उनकी आँखों में भी कुछ ऐसा ही था। फिर तो हिना ने शीतल का हाथ पकड़ने और तितली की तरह उड़ान भरने में पल भर की देर नहीं की।

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