Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है।
यह कथ्‍य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, सो इसे स्‍वीकार करने में हमने बस उतनी ही देर लगाई,जितनी फेसबुक के इनबॉक्‍स से संदेशा जाने में लगती है। लेकिन भाषा,वाक्‍य,वर्तनी, विराम चिन्‍ह तथा कही गई बातों की तार्किकता, उनका एक-दूसरे से सम्‍बन्‍ध विषयक सम्‍पादन की दरकार लग रही थी। हमने इस बाबत रचनाकार से पूछा। फिर उनकी अनुमति से रचना को सम्‍पादित करके वापस भेजा।
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जवाब में उनके साथ इनबॉक्‍स में कुछ इस तरह का संवाद हुआ :
रचनाकार :
जो कहने जा रहा हूँ उसे अपने सम्‍पादन पर टिप्पणी मत समझियेगा। मैं सिर्फ अपनी बात कह रहा हूँ। और आप के मंच के हिसाब से जो सही है उसी के अनुसार ही निर्णय कीजियेगा।
क्या ये संभव है कि जैसे मैंने कहानी लिखी है उसे वैसा ही प्रकाशित किया जाए बिना सम्पादित रूप। ताकि सभी को बिलकुल वही पढ़ने को मिले जो पूरी तरह से मैंने लिखा है। पोस्ट पर ही उसकी कमियों को खुल कर बताया जाए ताकि उसके सम्‍पादन के कारणों पर भी परिचर्चा सभी के सामने हो। इससे दूसरे मेरी तरह थोड़ा बहुत और सामान्य लिखने वालों को सीखने को भी मिलेगा (मुझे भी) और लिखने के लिए प्रोत्साहन भी कि सभी लिख सकते हैं।
राजेश उत्‍साही :
1. जैसा आपने लिखा है, वैसा का वैसा आप अपनी ही वॉल पर प्रकाशित कर सकते हैं। उसे मेरी वॉल पर या चौपाल पर लगाने का क्‍या फायदा। मेरा ख्‍याल है कि आपकी वॉल पर कहीं ज्‍यादा लोग पढ़ेंगे।
2. फेसबुक पर लघुकथा समूहों के साथ पिछले तीन साल से अलग-अलग रूपों में जुड़ा रहा हूँ। उनमें जो अनुभव हुए हैं, उनको ध्‍यान में रखकर अपनी वॉल पर यह गतिविधि आरम्‍भ की है।
3. यह संयोग है कि आपने पहली बार लघुकथा के रूप में लिखकर मुझे भेजा, उसका कथ्‍य मुझे उपयुक्‍त लगा। अन्‍यथा अधिकांशत: रचनाओं को मुझे खेद सहित मना करना पड़ता है। वे सम्‍पादन करने लायक भी नहीं होती हैं।
4. जहाँ तक आपके या रचनाकार के सीखने का मामला है, तो यह सारा अभ्‍यास उसी के लिए है। एक हद तक मैं रचनाकार के साथ चर्चा करके या सम्‍पादन करके उसकी कमियों की ओर इशारा करने की कोशिश करता हूँ। कुछ और बातें चौपाल पर अन्‍य साथी कहते हैं।
5. फिलहाल चौपाल के फार्मेट में असम्‍पादित रचना प्रकाशित करने का प्रावधान नहीं है।
6. वैसे पिछले दिनों एक आधी-अधूरी रचना को बिना सम्‍पादित किए प्रकाशित करके वह प्रयोग भी करके देख लिया। उसका कोई नतीजा नहीं निकला। लोगों ने उस पर टिप्‍पणी करना भी जरूरी नहीं समझा।
7. बहरहाल केवल आपकी मूल रचना ज्‍यों की त्‍यों तो प्रकाशित नहीं हो सकेगी। हाँ, यह जरूर हो सकता है कि सम्‍पादित और असम्‍पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों।
8. अब आप जैसा आदेश करें।
एक और बात .... इसे ज्‍यों का त्‍यों प्रकाशित करने के लिए कई सारे लघुकथा समूह खुशी-खुशी स्‍वीकार कर लेंगे।
रचनाकार :
सम्‍पादित और असम्‍पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों। क्‍या यह हो सकता है।
राजेश उत्‍साही :
हाँ, वह हो सकता है। वह मैंने पहले भी किया है।
रचनाकार :
यदि आप को कोई समस्या नहीं है तो ठीक है।
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तो रचनाकार के विशेष आग्रह पर रचना के दोनों रूप यहाँ दिए जा रहे हैं। असम्‍पादित रचना में सिवाय पूर्णविराम चिन्‍ह के पहले आ रहे अतिरिक्‍त स्‍पेश को कम करने के अलावा, एक अनुस्‍वार का सम्‍पादन भी नहीं किया गया है।
जबकि सम्‍पादित रचना को उस हद तक ही सम्‍पादित किया गया है, जो उसके लिए न्‍यूनतम रूप में आवश्‍यक था। वह अब भी और बेहतर हो सकती है। पर यह काम उसके मूल रचनाकार को ही करना होगा। जाहिर है सम्‍पादन मैंने किया है। तो अगर अच्‍छा लगे तो बेशक उसका जिक्र करें, लेकिन उसके कसीदे काढ़ने से बचें।
तो सुधी पाठक पढ़ें। अपेक्षा है कि कथ्‍य और उसके निर्वाह पर विशेष ध्‍यान दें। उनकी चर्चा करें। उसके बाद अन्‍य महत्‍वपूर्ण बातों की।
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बेटर हॉफ : ज्‍यों की त्‍यों यानी असम्‍पादित
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उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वो नई विवाहिता थी, लेकिन जिस सहजता से दोनों पति पत्नी होटल में खाना खाते रिश्तेदारों के बीच भी बाते कर रहे थे लगता था जैसे दोनों की पहचान बहुत पुरानी है।
" ये आखरी मंदिर था ना या अभी और भी मंदिरो में दर्शन बाकि है " वह पहला कौर ख़त्म कर मुस्कराते बोली।
" ओह ! तुम्हे मंदिर जाना नहीं पसंद है क्या " उसने जवाब की जगह मुस्कराते सवाल किया।
" तुम्हे कैसे पता "
" तुम्हारे चेहरे पर लिखा है "।
वो जोर से हंस पड़ी पर सामने ही अपने सासु माँ को देख झेप चुप हो गई। माँ की प्‍लेट में रोटी ख़त्म हो चुकी थी लेकिन वो चुपचाप बैठी थी ससुर जी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने आस पास वेटर को देखने के लिए नजर दौड़ाई वो आवाज देने ही वाली थी कि " क्या हुआ कुछ चाहिए क्या मै बुला देता हु वेटर को "
" नहीं माँ की रोटियां ख़त्म हो गई है वेटर को और लाने के लिए बोल दो "
तभी ससुर जी ने आखरी कौर मुंह में डालते हुए जोर से आवाज लगाई " भाई कब से बोला है रोटियों के लिए अभी तक दी नहीं। बहुत ख़राब सर्विस है आप की। एक भी बनी है वही दे जाओ "। वेटर तुरंत ही एक रोटी रख जाता है। माँ रोटी उठा कर पिता जी की प्‍लेट में रख देती है। वो दोनों अब भी अपने बातो में खोये हुए थे।
" तुम पूजा पाठ करते हो क्या "
" नहीं मै भी ज्यादा नहीं करता लेकिन ये सब विवाह की रस्मे है तो बड़ो का मन रखने के लिए कर लेता हु "
" ओह तब ठीक है, क्योकि अभी हम दोनों को मेरे घर जा कर भी बड़ो का मन रखना है। " वेटर दूसरी रोटी ला मेज पर रख देता है माँ रोटी उठाती है और पहले बेटे और पति के प्लेटो पर नजर डाल फिर अपनी प्‍लेट में रख खाना शुरू करती है लेकिन अब भी उसकी नजर अपन बेटे की प्‍लेट पर थी।
" तुम्हे पता है मै इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सब घर में पहली बेटी है कर इतना कुछ कर डाला "।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करे विवाह में दिखावे के नाम पर , लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है आखरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए। "
यह सुन दोनों एक दूसरे देख मुस्कुराने लगे और दोनों ने अपने प्लेट की रोटी का आखरी टुकड़ा मुंह में डाला। वेटर तुरंत ही एक रोटी उन दोनों के सामने रख चला जाता है। दोनों एक साथ उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाते है , पर मेहँदीवाले हाथ रोटियों तक पहले पहुंच जाते है। उसने रोटी उठाते ही उसके दो हिस्से किये एक अपनी प्‍लेट में रखा दूसरा उसकी। दोनों फिर सहज हो एक दूसरे से बाते करने और खाने में व्यस्त हो गए। लेकिन सामने बैठे लोगो में कोई भी अब सहज न था
बेटर हॉफ : सम्‍पादित
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वे सब होटल में थे।
उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वह नव-विवाहिता थी। वे दोनों खाना खाते हुए बातचीत कर रहे थे।
" ये आखिरी मंदिर था ना। या अभी दर्शन के लिए और भी बाकी हैं?" वह कौर खत्म कर मुस्कराते हुए बोली।
" क्‍यों ! तुम्हें मंदिर जाना पसंद नहीं है क्या?" पति ने मुस्कराते हुए उल्‍टा सवाल किया।
" तुम्हें कैसे पता?" वह थोड़े आश्‍चर्य से बोली।
" तुम्हारे चेहरे पर जो लिखा है।" पति ने कहा।
सुनकर वह जोर से हँस पड़ी। फिर अगले ही पल सामने बैठी सासू माँ से नजरें मिलते ही झेंपकर चुप हो गई। उनकी प्‍लेट में रोटी खत्म हो गई थी, लेकिन वे चुपचाप बैठी थीं। ससुर जी भी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने वेटर को बुलाने के लिए आसपास नजर दौड़ाई। उसे कुछ खोजता हुआ देखकर पति ने पूछा, " क्या हुआ, कुछ चाहिए? "
" हाँ, देखो न माँ जी की प्‍लेट में रोटी खत्म हो गई है। वेटर को और लाने के लिए बोल दो।"
पति बोलता, उसके पहले ही ससुर जी ने आखिरी कौर मुँह में डालने के पहले जोर से आवाज लगाई, "भाई कब से बोला है रोटियों के लिए। बहुत सुस्‍त सर्विस है आपकी।"
वेटर भागा-भागा आया और एक रोटी रखकर चला गया। सासू माँ ने रोटी उठाकर ससुर जी की प्‍लेट में रख दी। ससुर जी फिर से खाने लगे। सासू माँ फिर प्रतीक्षा करने लगीं।
" तुम पूजा-पाठ करते हो क्या?" उसने पति से पूछा।
" नहीं मैं ज्यादा कुछ नहीं करता। लेकिन ये सब विवाह की रस्में हैं, तो बड़ों का मन रखने के लिए कर रहा हूँ।" पति ने धीमे स्‍वर में कहा।
" अरे, अभी तो आपको मेरे मायके चलकर वहाँ के बड़ों का मन भी रखना है।" उसने जोर देकर कहा।
इस बीच वेटर दूसरी रोटी मेज पर रखकर चला गया था। सासू माँ ने रोटी उठाई। फिर एक नजर अपने पति और बेटे की प्‍लेट पर डाली। दोनों की प्‍लेट में अभी रोटी थी। फिर अपनी प्‍लेट में रखकर खाना शुरू कर दिया।
" तुम्हें पता है मैं इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सबने पहली बेटी है कहकर इतना कुछ कर डाला।" वह बोली।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करें। लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है। घर में आखिरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए।" पति बोला।
यह कहते-सुनते दोनों मुस्कराने लगे। दोनों ने अपने प्‍लेट की रोटी का आखिरी टुकड़ा मुँह में डाला। उसी समय वेटर एक और रोटी मेज पर रख गया। दोनों ने एक साथ रोटी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। पर मेहँदीवाला हाथ पहले पहुँच गया। उसने रोटी उठाई। उसके दो हिस्से किए। एक अपनी प्‍लेट में रखा, दूसरा पति की। दोनों फिर उसी सहजता से खाने और बतियाने में व्यस्त हो गए।
लेकिन अब तक सामने बैठे दो लोग असहज हो चले थे।

16/06/2018

लघुकथा चौपाल – 25 (भाग-दो)

प्रस्‍तुत रचना हाल ही में नवलेखन ‘क्षितिज लघुकथा सम्‍मान’ प्राप्‍त करने वाले Kapil Shastri की है।
जब रचना चौपाल पर लगी और टिप्‍पणियाँ नहीं आ रही थीं, तो कपिल जी ने इसे अपनी वॉल पर एक नहीं चार बार साझा किया। क्रमश:10,11 और 14 जून को । 11 जून को पहले सुबह और फिर शाम को। लेकिन अफसोस की बात कि उस पर किसी ने ध्‍यान ही नहीं दिया। केवल निशा व्‍यास जी ही वहाँ पहुँचीं। बहरहाल इस बात का उल्‍लेख इसलिए कि नोटिस नहीं लिए जाने से रचनाकार स्‍वयं कितने बैचेन थे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अंतत: मुझे भी चौपाल पर एक अप्रिय और कठोर टिप्‍पणी लिखनी पड़ी। उसका सकारात्‍मक असर यह हुआ कि इस रचना पर टिप्‍पणियाँ आईं। और अब भी आ रही हैं।
कपिल जी ने हमेशा की तरह सभी प्रतिक्रियाओं का संज्ञान लिया। लेकिन उन्‍होंने प्रस्‍तुत रचना में फिलहाल किसी तरह के बदलाव की जरूरत महसूस नहीं की। शीर्षक के सुझाव भी प्राप्‍त हुए। पर उन्‍होंने पहले सोचा गया शीर्षक ‘न्‍योछावर’ ही उपयुक्‍त पाया।
कपिल जी अपनी रचना में चाहें तो परिमार्जन कर ही सकते हैं। वे इसके लिए स्‍वतंत्र हैं। पर चौपाल पर फिलहाल उनकी ‘न्‍योछावर’ ज्‍यों की त्‍यों प्रस्‍तुत है।
(इससे इतर बात कि पिछले कुछ दिनों से मेरा अनुभव भी यह रहा है कि साझा की जाने वाली पोस्‍टें पता नहीं क्‍यों, बहुत लोगों की नजर में आती नहीं हैं। इसलिए बेहतर यह होता है कि आप उसे कॉपी-पेस्‍ट करें,स्रोत के उल्‍लेख के साथ।)
न्‍योछावर : कपिल शास्‍त्री
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आशुतोष-विमला जी के विवाह की स्‍वर्णजयंती सालगिरह का मौका था। इसी शहर में अलग कॉलोनी में रह रहे साधन-संपन्न बेटे-बहू ने सालगिरह मानने का भव्‍य आयोजन किया था। बिलकुल विवाह की तरह। नई सोच की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका दे दिया गया था। उसमें सब कुछ नया-नया था। परम्‍परागत वरमाला, बन्ना-बन्नी गाना और मेंहदी भी उसमें शामिल थे।
महिलाओं में खासा उत्साह था। वृद्ध दंपत्ति को सुखद आश्चर्य देने के लिए नाते रिश्तेदार तीन चार दिन पहले ही पधार गए थे।
विवाह 1968 में हुआ था। कोरियोग्राफर उसी दौर के चुनिंदा फिल्‍मी गानों पर नृत्य तैयार कर रही थी। रिश्तेदार मधुमेह, जोड़ों के दर्द, उच्च रक्तचाप, थाइरोइड जैसी जीवन के साथ चलने वाली बीमारियों को ताक पर रखकर कोरियोग्राफर के इशारे पर नाच रहे थे। कुछ थे जो मुश्किल स्टेप्स पर उसे पानी पी-पी कर कोस भी रहे थे।
महिलाओं और पुरुषों के प्रत्येक दिन के लिए अलग-अलग ड्रेस कोड निर्धारित थे। सबको एक बार सूंघ कर तसल्ली कर लेने वाले,सख्त अनुशासन में पले-बढ़े दो वफादार कुत्ते भी प्रत्येक गतिविधियों के मूक दर्शक थे।
युवाओं के लिए यह अत्यंत आनन्‍ददायक था। टेंट हाउस के थाली चम्मच गिनवाना और पूरियों के उतरने की महक भी बीते दिनों की बात थी। डिस्पोजेबल प्लेट्स में भोजन आ जा रहा था। एल्युमीनियम फॉयल में लिपटी रोटियाँ थीं। अब्बा का पजामा अपने नए नामकरण प्लाजो के साथ महिलाओं के तन पर सुशोभित था।
सालगिरह के दिन युवा-अधेड़ जोड़ों ने नाचते हुए समाँ बाँध दिया था।
आशुतोष जी से पाँच साल छोटे भाई भी जोश में आ गए। उन्हें नाचता देख, उनकी पत्‍नी पर्स से 200 रुपये का नया नोट निकालकर उनके सिर पर से वार देने से अपने को रोक नहीं सकीं। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से चारों ओर देखा, "किसको दूँ ?"
लेकिन आलीशान होटल के वातानुकूलित हॉल में न्योछावर लेने वाला तो कोई था ही नहीं। झेंपकर उन्‍होंने नोट चुपचाप पर्स में वापस रख लिया।

17/06/2018

लघुकथा चौपाल – 25 (भाग-एक)

प्रस्‍तुत रचना का कथ्‍य बहुत सामान्‍य है। लेकिन उस सामान्‍य में एक छोटे-से अवलोकन ने उसे एक रचना का रूप दे दिया है। लेखक की मूल रचना का यह सम्‍पादित रूप है। लेखक ने जो शीर्षक दिया था, उससे वे स्‍वयं संतुष्‍ट नहीं हैं। इसलिए रचना बिना शीर्षक के ही प्रस्‍तुत है। आप अन्‍य बातों के अलावा आप शीर्षक भी सुझाइए।
बिन शीर्षक : लेखक का नाम बाद में
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आशुतोष-विमला जी के विवाह की स्‍वर्णजयंती सालगिरह का मौका था। इसी शहर में अलग कॉलोनी में रह रहे साधन-संपन्न बेटे-बहू ने सालगिरह मानने का भव्‍य आयोजन किया था। बिलकुल विवाह की तरह। नई सोच की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका दे दिया गया था। उसमें सब कुछ नया-नया था। परम्‍परागत वरमाला, बन्ना-बन्नी गाना और मेंहदी भी उसमें शामिल थे। महिलाओं में खासा उत्साह था। वृद्ध दंपत्ति को सुखद आश्चर्य देने के लिए नाते रिश्तेदार तीन चार दिन पहले ही पधार गए थे।
विवाह 1968 में हुआ था। कोरियोग्राफर उसी दौर के चुनिंदा फिल्‍मी गानों पर नृत्य तैयार कर रही थी। रिश्तेदार मधुमेह, जोड़ों के दर्द, उच्च रक्तचाप, थाइरोइड जैसी जीवन के साथ चलने वाली बीमारियों को ताक पर रखकर कोरियोग्राफर के इशारे पर नाच रहे थे। कुछ थे जो मुश्किल स्टेप्स पर उसे पानी पी पी कर कोस भी रहे थे।
महिलाओं और पुरुषों के प्रत्येक दिन के लिए अलग-अलग ड्रेस कोड निर्धारित थे। सबको एक बार सूंघ कर तसल्ली कर लेने वाले,सख्त अनुशासन में पले-बढ़े दो वफादार कुत्ते भी प्रत्येक गतिविधियों के मूक दर्शक थे।
युवाओं के लिए यह अत्यंत आनंददायक था। टेंट हाउस के थाली चम्मच गिनवाना और पूरियों के उतरने की महक भी बीते दिनों की बात थी। डिस्पोजेबल प्लेट्स में भोजन आ जा रहा था। एल्युमीनियम फॉयल में लिपटी रोटियाँ थीं। अब्बा का पजामा अपने नए नामकरण प्लाजो के साथ महिलाओं के तन पर सुशोभित था।
सालगिरह के दिन युवा-अधेड़ जोड़ों ने नाचते हुए समाँ बाँध दिया था। आशुतोष जी से पाँच साल छोटे भाई भी जोश में आ गए। उन्हें नाचता देख, उनकी पत्‍नी पर्स से 200 रुपये का नया नोट निकालकर उनके सिर पर से वार देने से अपने को रोक नहीं सकीं। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से चारों ओर देखा, 'किसको दूँ ?'
लेकिन आलीशान होटल के वातानुकूलित हॉल में न्योछावर लेने वाला तो कोई था ही नहीं। झेंपकर उन्‍होंने नोट चुपचाप पर्स में वापस रख लिया।

09/06/2018

लघुकथा चौपाल – 24 (भाग-दो)

इसका कथ्‍य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्‍दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्‍तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्‍छी लगी कि इसका सम्‍बन्‍ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्‍पादन किया गया था। और अब रचनाकार का कहना है कि वह इसमें कोई और संशोधन करना भी नहीं चाहता।
यह लघुकथा मृणाल आशुतोष की है। वास्‍तव में इस पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, हुई नहीं। मेरा मानना है कि अमूमन हम उस समस्‍या पर ज्‍यादा चर्चा नहीं करते हैं, या उससे बचने की कोशिश करते हैं, जिसमें किसी न किसी रूप में शामिल होते हैं। कहने को इसका कथ्‍य एक बहुत ही छोटी-सी टिप्‍पणी है, पर यह हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का एक विद्रूप चेहरा है। हम बच्‍चों को वह सब पढ़ा रहे हैं, जिन्‍हें हम स्‍वयं ही अपने जीवन में उतार नहीं पाए हैं।
प्रतिक्रियाओं में कुछ साथियों ने इस बात की ओर इशारा भी किया है। त्रिभाषा फार्मूले की बात भी Arun Danayak जी ने कही है। Somesh Saxena ने अपने सवाल से उन छिपे पहलुओं को खोला है, जो इस लघुकथा के असली निशाने पर हैं। Virender Veer Mehtaजी ने इसके अधूरेपन की ओर ध्‍यान खींचा है। लेकिन मेरी राय में अधूरापन ही इसकी जान है।
और अंतिम क्षणों में आकर अर्चना तिवारी ने इस पर यह महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की है :
भले ही यह लघुकथा साधारण हो, भले ही यह कथनी करनी पर आधारित हो, भले ही रचनाकार ने यह सोचकर इसे ना लिखा हो किन्तु यह एक कटु सत्य कहती है जिसके पक्ष में शायद कुछ लोग ही हों।
आज समाज में जिस तरह से भक्त और ज्ञानी को एक-दूसरे का पर्याय समझा जा रहा है वह ऐसे ही श्लोकों के आदर्शवादी ज्ञान का परिणाम है।
विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
1. यानी जिनके पास विद्या नहीं है वे विनयी नहीं हैं?
2. जो विनयी हैं (इसे आज का भक्तवाद भी कहूँगी) वे कतई किसी बात के पात्र नहीं, योग्य नहीं. यानी हर बात पर हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला ही योग्य है?
3. अब जब ऐसे विनयी होंगे तो उनके पास धन तो होना ही है।
4. जिसके पास ऐसा धन है तो वर्तमान कथित धर्म उसके पक्ष में होगा ही।
5.और जिसके पास धर्म है तो वह परम सुख पाएगा ही।
इस लघुकथा में उपस्थित अध्यापक उन सभी लोगों का प्रतीक है जो इस मानसिकता के हैं कि विद्या को घोटकर पी लेने वाला ही सर्वगुण सम्पन्न है। चाहे उसकी विचारधारा, उसका कृत्य समाज के हित में ना भी हो।
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निश्चित ही अर्चना तिवारी महत्‍वपूर्ण बात कह रही हैं। पर अध्‍यापक अकेले को गरियाने के क्रम में हम यह न भूल जाएँ, कि अध्‍यापक को बनाया किसने, वह किस व्‍यवस्‍था में बना है या कौन बना रहा है। उसका प्रशिक्षण, प्रशिक्षण के तरीके,पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्‍तकें और जिस आधार पर उन्‍हें बनाया गया है, उनका पाठयक्रम और पाठ्यचर्या, आकलन के तरीके भी इसके लिए जिम्‍मेदार हैं।
और सबसे महत्‍वपूर्ण बात कि अंतत: शिक्षा का उद्देश्‍य क्‍या है ?
विद्या : मृणाल आशुतोष
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"
बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्‍लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, " विद्या विनय देती है.... !"


09/06/2018

लघुकथा चौपाल – 24 (भाग-एक)

इसका कथ्‍य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्‍दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्‍तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्‍छी लगी कि इसका सम्‍बन्‍ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्‍पादन किया गया है।
बाकी अब आप बताएँ।
विद्या : लेखक का नाम बाद में
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"

बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्‍लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, ' विद्या विनय देती है.... !'

लघुकथा चौपाल-23 (भाग-2)

आपमें से कईयों को याद होगा कि इसके पहले भाग में चित्रा राणा राघव ने एक टिप्‍पणी करते हुए, मोटापे की समस्‍या पर लम्‍बी टीप लिखी थी। जिसे मैंने सम्‍पादित कर दिया था। दरअसल यह लघुकथा उनकी ही है।
लघुकथा के नए लेखकों में उनका नाम नए और अछूते विषय चुनने में पहचाना-जाने लगा है। बल्कि उससे भी आगे वे जो देखती हैं, उसे लिखती हैं। अपने उस लिखे को वे जबरन लघुकथा में ढालने पर उतारू नहीं रहती हैं। यही बात उनके लेखन में ताजगी बनाए रखती है।
चौपाल पर आने का उनका प्रयास जनवरी से ही आरम्‍भ हो गया था। एक के बाद एक उन्‍होंने मुझे अपनी पाँच-छह रचनाएँ भेजीं। उन सब पर अपनी प्रतिक्रिया से मैंने उन्‍हें अवगत कराया। बहुत विनम्रता के साथ उन्‍होंने मेरी बात सुनी। उस पर सहमति भी जताई। अच्‍छा लगा कि उन्‍होंने मेरी कठोर प्रतिक्रियाओं के बावजूद चौपाल से मुँह नहीं मोड़ा। उसी का नतीजा है कि उनकी यह रचना मैं यहाँ प्रस्‍तुत कर पाया। उनमें गजब की रचनात्‍मक ऊर्जा है। उसका स्‍वागत है। उन्‍हें अभी बहुत लम्‍बा रास्‍ता तय करना है। बहुत-सी बातें समझनी हैं,बहुत-सी सीखनी हैं। बहुत-सी बातों के मोह से बचना है और बहुत-सी बातों से मोह करना है।
रचना पर जो भी टिप्‍पणियाँ आईं, उनका संज्ञान लेकर उन्‍होंने कुछ परिवर्तन किए। परिवर्तित रचना को भी मैंने सम्‍पादित किया है। जिससे उनकी सहमति है।
चित्रा कहती हैं, ‘‘पहले मुझे लगा कि मैं हिंदी लेखन और लघुकथा लेखन में दिख रही विषय शिथिलता को लेकर बहुत कुछ कहूँ। पर लेखक होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी नहीं कि पाठक या समीक्षक को विषय/ समस्याओं की जानकारी चर्चा में दूँ। मैं विभिन्न विषयों पर लिखती रहूँगी। और ऐसा मेरा विश्वास है कि लिखती रही तो अलग या नए विषयों पर पढ़ने वाले जरूर मिलेंगें। मुझे लघुकथा लेखकों से अलग, सामान्य पाठकों की समझने की क्षमता पर और विषय चुनाव को स्वीकार करने की व्यापकता पर कहीं अधिक भरोसा है। मुझे लगता है मैं ‘शीनू’ के संघर्ष को गहनता से व्‍यक्‍त करने में न्याय नहीं कर सकी।’’
इलाज : चित्रा राणा राघव
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शीनू अब कुछ ज्यादा ही शांत होता जा रहा था। उसके ही कहने पर डांस क्लास, स्विमिंग क्लास, स्टेडियम आदि जॉइन भी करवाये, जिन्हें उसने खुद ही छोड़ दिया। अजीब मानसिक अस्थिरता और शारीरिक शिथिलता का शिकार हो रहा था। वह पूरे घर में चिंता का विषय बनता जा रहा था। इलाज के परिणाम न आने पर, माता-पिता की रोक-टोक, डॉक्टर के बताए नियम आदि में वह घुटन महसूस करता। अक्सर कमरे में अकेला रहता। जो भी खाने को दो चुपचाप खा लेता। अपने पसन्दीदा कार्टून, मूवी देखने का भी उसका मन नहीं होता। माँ जितने सवाल करती, स्थिति उतनी ही उलझ जाती। पिता का ध्यान भी उसकी इन सभी गतिविधियों पर था।
पत्‍नी के कहने पर वे शीनू के कमरे में गये। पिता को आया देख, शीनू ने पूछा, “क्या हुआ पापा कुछ काम था ?”
“नहीं बेटा।”
“तो ममा ने फिर कोई शिकायत की आपसे ?”
“नहीं, वो तो सोने की तैयारी कर रही हैं। मुझे एक पार्टी में जाना है। वैसे मेरा भी मन नहीं है, इतनी टेंशन में क्या एन्जॉय करूँगा ! ”
“ टेंशन, कैसी टेंशन ?”
“ बस वही ऑफिस की टेंशन है। छोड़ो, तुम अपना ध्यान रखना। ”
“पापा, अब मैं आपकी टेंशन का कुछ कर भले ही न सकूँ, सुन तो सकता हूँ। आप बताइए।” कहकर उसने पापा को खींचकर अपने बिस्‍तर पर बिठा लिया।
“अरे, बेटा वो मिस्टर बॉस हैं न। मेरे काम में हर वक्‍त कमियाँ ही निकालते रहते हैं। अब कल उन्‍हें एक प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट दिखानी है। बस उसकी ही चिंता है। फाइनल रिपोर्ट को उतना समय मैं दे नहीं सका जितना देना था।”
“हाँ पापा कभी-कभी होती है ऐसी चिंता। मुझे भी हो रही है।”
“तुम्‍हें किस बात की चिंता हो रही है ?” पिता ने घबराकर पूछा।
“यही कि आप सबकी मेहनत बेकार न हो जाए। ऊपर से डिस्ट्रेक्टशन!”
“कौन सी मेहनत, कैसा डिस्ट्रेक्टशन ?”
“वही, जिसका इलाज आप करवा रहे हैं, मेरा मोटापा। डॉक्टर अंकल, ममा आप सब इतनी मेहनत कर रहे हैं। और वो सारी मेहनत बर्बाद करना चाहता है ?”
“वो कौन ?”
“जंक फ़ूड। टी.वी. चालू करो तो वही। स्टेडियम, स्कूल, मॉल, हर जगह उसी के ठेले। दुकानों पर सजा खाना और खाने वालों की भीड़। सब आप सबकी मेहनत बरबाद करना चाहते हैं। मैं बहुत कोशिश करता हूँ कि उधर ध्यान ही न जाए, पर यहाँ-वहाँ पोस्टर्स में वह खाना कितना खूबसूरत दिखता है।’’ शीनू बोला।
“ओह यह बात है।” पिता ने राहत की साँस ली। “पर तुम तो उनके बहकावे में नहीं आ रहे हो न?”
“अभी तक तो नहीं।” शीनू ने कहा।
“…और आगे भी नहीं। चलो पार्टी कैंसिल। अब हम दोनों तुम्हारा डाइट खाना खाते हैं।” पिता ने ढाढस बँधाया।
“पापा मैं भी एक बात कहूँ ?” शीनू बोला।
“ हाँ, हाँ कहो।”
“आपने रिपोर्ट बनाने में पूरी मेहनत की है न? ” शीनू ने पूछा।
“ हाँ, बिलकुल की है।”
“ तो फिर आपको भी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।” शीनू ने मुस्‍कराते हुए कहा।
“ अरे मेरा शीनू तो सचमुच बड़ा हो गया है।” कहते हुए पिता ने उसे गले से लगा लिया।

लघुकथा चौपाल -23 (भाग-एक)

अपील का असर हुआ। और कई नए साथियों ने अपनी रचनाएँ चौपाल के लिए भेजी हैं। इस रचना के रचनाकार ने अपनी तीन रचनाएँ भेजीं। उनमें से एक का परिमार्जित और सम्‍पादित रूप रचनाकार की सहमति से यहाँ प्रस्‍तुत है। इसमें एक अछूते विषय को पकड़ने की कोशिश की गई है।
बाकी बातें आप सब बताएँगे ही।
इलाज : लेखक का नाम बाद में
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शीनू अब कुछ ज्यादा ही शांत होता जा रहा था। मन बहलाने के लिए डांस क्लास, स्विमिंग क्लास, स्टेडियम आदि ज्‍वॉइन भी करवाये। पर उसकी मानसिक स्थिति और ज्यादा अस्थिर हो जाने के कारण सब छुड़ाना पड़ा। वह अक्सर कमरे में अकेला रहता। जो भी खाने को दो चुपचाप खा लेता। माँ जितने सवाल करती, स्थिति उतनी ही उलझ जाती। उसने कई बार शीनू को अकेले रोते हुए पाया। पिता का ध्यान सभी गतिविधियों पर था। माँ के कहने पर पिता शीनू के कमरे में गया।
पिता को आया देख, शीनू ने पूछा, “क्या हुआ पापा कुछ काम था ?”
“नहीं बेटा।”
“तो ममा ने फिर कोई शिकायत की आपसे ?”
“नहीं, वो सो गयीं, मुझे नींद नहीं आ रही थी। अगर तुम्हें नींद आ रही है तो मैं चला जाता हूँ।”
“नहीं, मुझे भी नींद कहाँ आ रही है। आप बैठिए। पर आपको नींद क्‍यों नहीं आ रही?”
“बस ऑफिस की कुछ टेंशन हैं। छोड़ो भी। पर तुम अब तक क्‍यों नहीं सोये?”
“पापा, अब मैं इतना छोटा भी नहीं हूँ। आपकी टेंशन का कुछ कर भले ही न सकूँ, सुन तो सकता हूँ। आप बताइए।” कहकर उसने पापा को खींचकर अपने बिस्‍तर पर बिठा लिया।
“अरे बेटा वो मिस्टर शर्मा हैं न, मेरे बॉस। मेरे काम में हर वक्‍त कमियाँ ही निकालते रहते हैं। अब कल उन्‍हें एक प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट दिखानी है। कहीं ऐसा न हो वे मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर दें। बस उसकी ही चिंता है।”
“हाँ पापा कभी-कभी होती है ऐसी चिंता। मुझे भी हो रही है।”
“तुम्‍हें किस बात की चिंता हो रही है ?” पिता ने घबराकर पूछा।
“यही कि आप सबकी मेहनत बेकार न हो जाए ?”
“कौन सी मेहनत ?”
“वही, जिसका आप इलाज करवा रहे हैं, मेरा मोटापा। डॉक्टर अंकल, ममा आप सब इतनी मेहनत कर रहे हैं। और वो सारी मेहनत बर्बाद करना चाहता है ?”
“वो कौन ?”
“जंक फ़ूड। टी.वी चालू करो तो वही। स्टेडियम, स्कूल, मॉल, हर जगह उसी के ठेले। सारी दुकानों पर सजा खाना और खाने वालों की भीड़। सब आप सबकी मेहनत बरबाद करना चाहते हैं।’’ शीनू बोला।
“ओह यह बात है।” पिता ने राहत की साँस ली। “पर तुम तो उनके बहकावे में नहीं आ रहे हो न?”
“नहीं,बिलकुल नहीं ?” शीनू ने कहा।
“तो फिर तो चिंता की कोई बात नहीं। तुम जरूर सफल होओगे।” पिता ने ढाढस बँधाया।
“पापा मैं भी एक बात कहूँ ?” शीनू बोला।
“ हाँ, हाँ कहो।”
“आपने रिपोर्ट बनाने में पूरी मेहनत की है न।” शीनू ने पूछा।
“ हाँ, बिलकुल की है।”
“ तो फिर आपको भी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।” शीनू ने मुस्‍कराते हुए कहा।
“ अरे मेरा शीनू तो सचमुच बड़ा हो गया है।” कहते हुए पिता ने उसे गले से लगा लिया।


26/05/2018

लघुकथा चौपाल-22 (भाग-दो)

प्रस्‍तुत लघुकथा Arun Kumar Gupta की है।
उन्‍होंने अपनी टिप्‍पणी में लिखा है :
‘अपनी–अपनी दुआ’ पर टिप्पणी करने वाले सभी साथियों का धन्यवाद और आभार।
जब लोग किसी की भी रचना की समीक्षा करते हैं तो उसमें फूल भी होते हैं और काँटे भी। मेरी दृष्टि में दोनों का अपना अपना महत्व है। फूल जहाँ लेखक / कलाकार को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते है वहीं काँटे इस बात की ओर इंगित करतें है कि अभी भी पैर और संभाल कर रखने की आवश्यकता है। इसीलिए मेरी लघुकथा पर आई सभी टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं। मैंने इस बात को उभारने का प्रयास किया है कि पति और पत्नी दोनों एक दूसरे के प्रति चिंतित हैं। लेकिन दोनों के व्यक्त करने के तरीके एकदम अलग हैं।
जानकी वाही जी की इस टिप्पणी से मैं सहमत हूँ कि पति-पत्नी में लाख मतभेद हों पर कोई तो डोर होती है जो एक दूजे को बाँधे रखती है।
नयना आरती कानिटकर जी ने कथा में विसंगति की बात की है। मेरे अनुसार कथा का ताना-बाना विसंगति इर्दगिर्द नहीं बुना गया है। पति और पत्नी दोनों ही एक-दूसरे को लेकर चिंतित हैं लेकिन दोनों के उसे व्यक्त करने के तरीके अलग-अलग हैं। हाँ यह बात काफी हद तक सही है कि एक के कहने के तरीके में निराशा का भाव (नकारात्मक सोच) ज्यादा है जब कि दूसरे के कहने में आशा का भाव (सकारात्मक सोच) है।
मेरा अपना मानना है कि लघुकथा जीवन की वास्तविकता के अधिक करीब होती है और कुछ क्षण विशेष में उभरे मन के भावों पर टिकी होती है। उन कुछ क्षणों /पलों में मन के एक या दो भाव (कविता के अनुसार रस) ही उभर कर आ सकते है।
फिलहाल मैं अपनी इस कथा में कुछ और बदलाव करने की जरूरत महसूस नहीं कर रहा हूँ। अतः जिस रूप में पहली बार लघुकथा की चौपाल में प्रस्तुत की गई उसी रूप में पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ। सभी का पुनः आभार।
अपनी–अपनी दुआ : अरुण कुमार गुप्‍ता
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छह नम्‍बर मरीज के इलाज के लिए निश्चय किया गया कि पहले उसकी कीमोथेरपी की जाए। यदि आराम नहीं होता है तो फिर उसके ब्रेस्ट को निकाल देना ही अन्तिम इलाज होगा। सारी बातें उसके पति को विस्तार से समझा दी गईं।
अगली सुबह जब मैं वार्ड में ड्यूटी पर आया तो मैंने उसके पति को आँखें बन्‍द किए, हाथ जोड़े बरामदे में बैठे देखा। मेरे पैरों की आहट से ध्यान भंग होने पर उसने आँखें खोलकर मेरी ओर देखा। नजरें मिलते ही शिष्टाचार वश मैंने पूछा, “लगता है अपने मरीज के लिए भगवान से दुआ कर रहे थे।”
उसने थकी सी आवाज में उत्तर दिया, “डॉक्टर साहेब, मुझे दो महीने पहले हार्ट अटैक आ चुका है। शुगर भी है। पता नहीं कितने दिन और जिन्‍दा रहूँगा। बस भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि मुझसे पहले इसे अपने पास बुला ले। मेरे बाद पता नहीं कोई इसका ध्यान रखेगा भी या नहीं?”
एक फीकी मुस्कान उसकी ओर फेंककर मैं वार्ड में दाखिल हो गया। मैंने देखा छह नम्‍बर मरीज भी हाथ जोड़े, आँखें बन्‍द किए ध्यान में लीन है। उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मैंने थोड़ी ऊँची आवाज में पूछा, “माता जी..! अब तबीयत कैसी है?”
उसने धीरे से आँखें खोलकर मेरी ओर देखा। मैंने मुस्कराकर कहा, “लगता है भगवान से अपने जल्दी ठीक होने की प्रार्थना कर रही हैं?”
उसने एक नजर बरामदे में बैठे पति पर डाली। फिर थोड़े उदास स्वर में बोली, “डाक्टर साहब! मेरे बाद इनका क्या होगा? पहले ही कितना दुबला गए हैं। ऊपर से मेरी बीमारी की चिन्‍ता ने और घेर लिया। हर छोटे-बड़े काम के लिए मुझ पर ही निर्भर रहते थे। अब पता नहीं सब कैसे करते होंगे? ऊपर वाले से कह रही थी कि थोड़ी-सी जिन्दगी और दे दे ताकि कुछ दिन इनके साथ रहकर इनकी देखभाल और कर लूँ।”

#लघुकथाचौपाल-22 (भाग-एक)

प्रस्‍तुत रचना का कथ्‍य बहुत चिर-परिचित है। वृद्ध दम्‍पतियों की व्‍यथा। दोनों एक-दूसरे की परवाह करते हैं। लेकिन उनका नजरिया कितना अलग है, लेखक ने इस बात को सामने रखने की कोशिश की है। मेरे ख्‍याल में लेखक इसमें सफल हुआ है।
लेखक ने जो रचना का जो प्रारूप भेजा था, यह उसका सम्‍पादित रूप है। पर सम्‍पादन में केवल उसे कसा गया है। वे शब्‍द या विवरण हटाए गए हैं, जिनकी आवश्‍यकता नहीं थी। लेखक की इस रूप पर सहमति है।
अब आप अपनी सहमति और असहमति जताएँ।
अपनी–अपनी दुआ : लेखक का नाम बाद में
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छह नम्‍बर मरीज के इलाज के लिए निश्चय किया गया कि पहले उसकी कीमोथेरपी की जाए। यदि आराम नहीं होता है तो फिर उसके ब्रेस्ट को निकाल देना ही अन्तिम इलाज होगा। सारी बातें उसके पति को विस्तार से समझा दी गईं।
अगली सुबह जब मैं वार्ड में ड्यूटी पर आया तो मैंने उसके पति को आँखें बन्‍द किए, हाथ जोड़े बरामदे में बैठे देखा। मेरे पैरों की आहट से ध्यान भंग होने पर उसने आँखें खोलकर मेरी ओर देखा। नजरें मिलते ही शिष्टाचार वश मैंने पूछा, “लगता है अपने मरीज के लिए भगवान से दुआ कर रहे थे।”
उसने थकी सी आवाज में उत्तर दिया, “डॉक्टर साहेब, मुझे दो महीने पहले हार्ट अटैक आ चुका है। शुगर भी है। पता नहीं कितने दिन और जिन्‍दा रहूँगा। बस भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि मुझसे पहले इसे अपने पास बुला ले। मेरे बाद पता नहीं कोई इसका ध्यान रखेगा भी या नहीं?”
एक फीकी मुस्कान उसकी ओर फेंककर मैं वार्ड में दाखिल हो गया। मैंने देखा छह नम्‍बर मरीज भी हाथ जोड़े, आँखें बन्‍द किए ध्यान में लीन है। उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मैंने थोड़ी ऊँची आवाज में पूछा, “माता जी..! अब तबीयत कैसी है?”
उसने धीरे से आँखें खोलकर मेरी ओर देखा। मैंने मुस्कराकर कहा, “लगता है भगवान से अपने जल्दी ठीक होने की प्रार्थना कर रही हैं?”
उसने एक नज़र बरामदे में बैठे पति पर डाली। फिर थोड़े उदास स्वर में बोली, “डाक्टर साहब! मेरे बाद इनका क्या होगा? पहले ही कितना दुबला गए हैं। ऊपर से मेरी बीमारी की चिन्‍ता ने और घेर लिया। हर छोटे-बड़े काम के लिए मुझ पर ही निर्भर रहते थे। अब पता नहीं सब कैसे करते होंगे? ऊपर वाले से कह रही थी कि थोड़ी सी जिन्दगी और दे दे ताकि कुछ दिन इनके साथ रहकर इनकी देखभाल और कर लूँ।”

लघुकथा चौपाल-21 (भाग-दो)

प्रस्‍तुत रचना Rashmi Pranay Wagle की है। 

जैसा कि मैंने इसे प्रस्‍तुत करते हुए कहा था, ‘यह रचना बिलकुल अलग ही तेवर की है। इसके कथ्‍य और उसके प्रस्‍तुतिकरण ने मुझे आकर्षित किया। अमूमन ऐसे कथ्‍य से बचने की कोशिश होती है। या फिर उन्‍हें अतिरेक में उठाया जाता है। जबकि जरूरत होती है कि उन्‍हें प्रस्‍तुत करते समय एक संतुलन रखा जाए। मुझे इसमें वह नजर आया।’ 

इस रचना पर जिस तरह का विमर्श हुआ, उसे देखकर लगा कि यह अपने उद्देश्‍य में सफल रही है। मेरे मत में एक सफल रचना वही है, जो पाठकों के मन में तमाम तरह के किन्‍तु-परन्‍तु जगाए। उन्‍हें यह सोचने पर मजबूर करे कि अगर ऐसा होता तो क्‍या होता, और नहीं होता तो क्‍या होता। बहरहाल मूल रचना में मैंने काँट-छाँट की थी। अन्‍य बातों के अलावा मैंने रश्मि जी की सहमति से चार मुख्‍य परिवर्तन किए थे : 

1. रचना के आरम्‍भ में ही आई पंक्ति // देश का माहौल खराब हो चला था। छोटी सी बात भी चिंगारी बनकर साम्प्रदायिक दंगे की आग भड़का देती थी..// को हटाया था।
2. मोहल्‍ले में आने की अवधि को आठ-दस महीने से घटाकर तीन-चार महीने किया था। 
3. न्‍यौता की जगह बुलऊआ शब्‍द प्रयोग किया था। 
4. रचना का अन्‍त पहले इन पंक्तियों के साथ हो रहा था // उसके मन में ईश्वर के प्रति आस्था। उसकी सच्ची श्रद्धा, समाज द्वारा बनाए आवरणों, सरहदों और मानव निर्मित तमाम ‘पूर्वग्रहों‘ पर भारी पड़ रही थी। उसके पैरों में आलता का सुर्ख रंग,मानो आने वाले शुभ समय का संकेत दे रहा था।// इसे बदला। 

रश्मि जी ने चौपाल पर हुए विमर्श को ध्‍यान में रखकर यह टिप्‍पणी की है : 
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मैंने सभी की टिप्पणियाँ ध्यान से पढ़ीं। सभी ने विमर्श में गंभीरता से भाग लिया। अर्चना तिवारी जी ने काफी हद तक रचना के मर्म को समझने की कोशिश की। सभी का आभार। किन्‍तु फिर भी मैं इसमें कोई अन्य परिवर्तन नहीं करना चाहती हूँ। क्योंकि ... 

1. मुझे लगता है आपने,जो सबसे जरूरी सम्पादन था ... (देश का माहौल खराब हो चला था. छोटी सी बात भी चिंगारी बनकर साम्प्रदायिक दंगे की आग भड़का देती थी.. ) इन दो पंक्तियों को हटा कर वो पूरा कर दिया है। वाकई इन दो पंक्‍तियों को यदि न हटाते तो कुछ भी अनकहा न रह जाता। 

2. लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से हम कितने पूर्वाग्रही हो चुके हैं। मैंने कहीं भी रचना में उस महिला के धर्म / जाति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। मात्र आभास पैदा किया है,कि वह मुस्लिम है। लेकिन वो सिक्‍ख भी हो सकती है। सिक्ख महिलाएँ भी आलता-सिन्‍दूर नहीं लगातीं। चटक शोख,कशीदाकारी-गोटे आदि से सजाए हुए वस्त्र /दुपट्टे पहनती हैं। लेकिन आज के तथाकथित माहौल में शक,अविश्वास,भय का जो जहर फैला हुआ है उसमें लगभग सभी ने मान लिया कि वह महिला मुस्लिम ही है। 

3. मेरा उद्देश्‍य था...कि हमारे अन्‍दर कितने पूर्वाग्रह पलते हैं, शायद मैं वह बतलाने में कामयाब रही। 

4. अब रचना को लेकर .. (अ) कि वह सीधे पूजा में जाकर हल्दी कुमकुम चढ़ाती है। हो सकता हैं कि उसका अंतरजातीय विवाह हो। हो सकता है कि वह विवाहपूर्व हिन्‍दू हो। (ब) हो सकता है कि उसके परिवार ने उसे अपने पूर्व धर्म के रीति-रिवाज अपनाने/उनका पालन करने के लिए कभी मना न किया हो। 

5. बुलऊआ शब्द नया तो नहीं है। अपने यहाँ चलन में है। मैंने न्यौता लिखा था। लेकिन Kapil Shastri जी ने विस्तृत अर्थ बतलाया। मूलत: मुझे यहाँ ' बुलऊआ या न्यौता’ शब्द के प्रयोग से रचना की संवेदनशीलता और रचनात्मकता पर कोई फर्क पड़ेगा ऐसा नहीं लगा। 

अन्‍त में बस यही कहना चाहती हूँ कि कई बार परिस्थितिवश हम बहुत अधिक जजमेंटल हो जाते हैं, पूर्वाग्रही हो जाते हैं। इस कारण से अनेक अच्छे व्यक्ति, अच्छी बातें, विचार हम से दूर रह जाते हैं। 

तो लीजिए एक बार फिर से पढि़ए रश्मि प्रणय वाघले की लघुकथा : पूर्वाग्रह 
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उस परिवार को कॉलोनी में आए तीन-चार महीने से अधिक हो गए थे। पर अभी तक किसी से उनकी खास जान-पहचान नहीं हो पाई थी। बच्चे हों या बड़े, कभी-कभार हँस-बोलकर केवल एक औपचारिकता निभा लेते थे। झिझक,अनजाना संकोच न बोल कर भी बहुत कुछ कह जाता था। 

नवरात्र चल रहे थे। कॉलोनी की सारी सुहागिनों को सुगंधा ने भजन संध्या पर आने का बुलऊआ दिया। उसे बुलाऊँ या नहीं, इसी उहापोह में दो दिन निकल गए। फिर ‘सोचा जाने दो। कौन फ़ालतू का टेंशन ले। क्या फर्क पड़ता है नहीं बुलाया तो।’ 

नियत समय पर ढोल-मंजीरे के साथ माताजी के भजन गाए जाने लगे। धूप-लोभान की महक से घर ही नहीं बाहर का वातावरण भी महक उठा। माताजी की आकर्षक श्रंगारमय मूर्ति मन मोह रही थी। सुगंधा सुहागिनों को पाँव में आलता लगा रही थी। माथे पर कुमकुम लगाकर हाथ में माताजी का रक्षासूत्र बाँध रही थी। 

तभी चूड़ियों की खनक ने सभी का ध्यान खींचा। दरवाजे पर शोख रंग की सलवार-कमीज और सिर पर सलमा-सितारे से सजा दुपट्टा ओढ़े वो खड़ी थी। उसे देखकर सुगंधा सकपका गई। लेकिन उसने सहजता से भीतर आकर माताजी को प्रणाम किया। वहाँ रखा हल्दी-कुमकुम चढ़ाया। 

फिर बोली,"शायद आप व्‍यस्‍तता में भूल गई होंगी, मुझे बुलऊआ देना...। इसलिए मैं खुद ही चली आई। सोचा मातारानी से आशीर्वाद ले लूँ।’’ वह नजदीक ही बैठ गई। 

सुगंधा ने भी सहज होते हुए उसका स्वागत किया। फिर अपनी दूसरी सहेली को आलाता लगाने लगी। 

उसने धीरे से पूछा, " मुझे नहीं लगाएँगी ?" 

"अरे नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन वो आप...आपके समाज में....।" आगे के शब्द कह ही नहीं पाई सुगंधा। 

"अरे वो सब छोडि़ए.. वो तो है... लेकिन मैं भी एक सुहागिन हूँ। मैं मातारानी के सामने हाथ जोडूँ। गुरुद्वारे में मत्था टेकूँ। कुरान की आयते पढूँ ,या चर्च में जाकर प्रार्थना करूँ। अपने परिवार की सलामती दुआ मैं कहीं भी माँगू, वो सब पहुँचेगा तो सारा ऊपरवाले के पास ही न..।" 

सुगंधा उसके पैरों में आलता लगा रही थी। और आलते का सुर्ख रंग उसके सारे पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ रहा था। 

लघुकथा चौपाल-21 (भाग-एक)

यह रचना बिलकुल अलग ही तेवर की है। इसके कथ्‍य और उसके प्रस्‍तुतिकरण ने मुझे आकर्षित किया। अमूमन ऐसे कथ्‍य से बचने की कोशिश होती है। या फिर उन्‍हें अतिरेक में उठाया जाता है। जबकि जरूरत होती है कि उन्‍हें प्रस्‍तुत करते समय एक संतुलन रखा जाए। मुझे इसमें वह नजर आया।
बहरहाल रचना के मूल प्रारूप में कसावट के स्‍तर पर काँट-छाँट की गई है। लेखक की इससे स‍हमति है।
अब आप अपनी सहमति/ असहमति दर्ज करें।
पूर्वाग्रह : लेखक का नाम बाद में
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उस परिवार को कॉलोनी में आए तीन-चार महीने से अधिक हो गए थे। पर अभी तक किसी से उनकी खास जान-पहचान नहीं हो पाई थी। बच्चे हों या बड़े, कभी-कभार हँस-बोलकर केवल एक औपचारिकता निभा लेते थे। झिझक,अनजाना संकोच न बोल कर भी बहुत कुछ कह जाता था।
नवरात्र चल रहे थे। कॉलोनी की सारी सुहागिनों को सुगंधा ने भजन संध्या पर आने का बुलऊआ दिया। उसे बुलाऊँ या नहीं, इसी उहापोह में दो दिन निकल गए। फिर ‘सोचा जाने दो। कौन फ़ालतू का टेंशन ले। क्या फर्क पड़ता है नहीं बुलाया तो।’
नियत समय पर ढोल-मंजीरे के साथ माताजी के भजन गाए जाने लगे। धूप-लोभान की महक से घर ही नहीं बाहर का वातावरण भी महक उठा। माताजी की आकर्षक श्रंगारमय मूर्ति मन मोह रही थी। सुगंधा सुहागिनों को पाँव में आलता लगा रही थी। माथे पर कुमकुम लगाकर हाथ में माताजी का रक्षासूत्र बाँध रही थी।
तभी चूड़ियों की खनक ने सभी का ध्यान खींचा। दरवाजे पर शोख रंग की सलवार-कमीज और सिर पर सलमा-सितारे से सजा दुपट्टा ओढ़े वो खड़ी थी। उसे देखकर सुगंधा सकपका गई। लेकिन उसने सहजता से भीतर आकर माताजी को प्रणाम किया। वहाँ रखा हल्दी-कुमकुम चढ़ाया।
फिर बोली,"शायद आप व्‍यस्‍तता में भूल गई होंगी, मुझे बुलऊआ देना...। इसलिए मैं खुद ही चली आई। सोचा मातारानी से आशीर्वाद ले लूँ।’’ वह नजदीक ही बैठ गई।
सुगंधा ने भी सहज होते हुए उसका स्वागत किया। फिर अपनी दूसरी सहेली को आलाता लगाने लगी।
उसने धीरे से पूछा, " मुझे नहीं लगाएँगी ? "
"अरे नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन वो आप...आपके समाज में....।" आगे के शब्द कह ही नहीं पाई सुगंधा।
"अरे वो सब छोडि़ए.. वो तो है... लेकिन मैं भी एक सुहागिन हूँ। मैं मातारानी के सामने हाथ जोडूँ। गुरुद्वारे में मत्था टेकूँ। कुरान की आयते पढूँ ,या चर्च में जाकर प्रार्थना करूँ। अपने परिवार की सलामती दुआ मैं कहीं भी माँगू, वो सब पहुँचेगा तो सारा ऊपरवाले के पास ही न..।"
सुगंधा उसके पैरों में आलता लगा रही थी। और आलते का सुर्ख रंग उसके सारे पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ रहा था।

लघुकथाचौपाल -20 (भाग-दो)

भाग-एक में प्रस्‍तुत कथ्‍यांश Nayana-Arati Kanitkar का था।
चौपाल के एक स्‍टेटस पर अर्चना तिवारी ने अपनी टिप्‍पणी में चौपाल के लिए कई सुझाव दिए थे। उनमें एक यह भी था कि ‘लेखकों से उनकी वे रचना बुलवाई जाएँ, जो फोल्‍डर बन्‍द हैं। हमारी उन फोल्डर बन्‍द रचनाओं को बुलवाया जाए जो लघुकथा बने बगैर रह गई हैं। इस पर चर्चा करने का आशय लघुकथा बनाना नहीं बल्कि उस बिन्‍दु पर विमर्श किया जाना चाहिए।’ हालांकि मैंने उनके इस सुझाव को ध्‍यान में रखते ऐसी रचनाएँ भेजने के लिए कोई अपील नहीं की थी। पर संयोग से उसी दौरान नयना जी की यह रचना या कथ्‍यांश चौपाल के लिए आया।
और जैसा कि मैंने उसे प्रस्‍तुत करते हुए लिखा था, ‘जिसने भी लिखा है, चौपाल के लिए भेजा है। उसे लगता है कि इससे लघुकथा बन सकती है। पर उसे सूझ नहीं रहा है कि अन्त कैसे किया जाए। मेरे सम्‍पादक मन में सवाल भी थे और दो-तीन सुझाव भी। पर इस बार मैंने लेखक से इस बारे में बातचीत नहीं की। न ही अपनी तरफ से कोई सुझाव दिया। सोचा, इस बार यह काम औरों को सौंप दिया जाए। इस कथ्‍यांश में मैंने लेखक की सहमति से केवल एक-दो छोटे मोटे परिर्वतन किए हैं। जिन्‍हें अनदेखा किया जा सकता है। बाकी लेखक का ही मूल है। आप लेखक से सवाल भी पूछें। लेखक को सुझाव भी दें। जाहिर है सवालों का जवाब देने के लिए फिलहाल लेखक मौजूद नहीं होगा। तो आप में से जिस किसी के पास भी उस सवाल का जवाब हो, वह स्‍वयं को इसका लेखक मानकर दे सकता है।’
लेकिन खेद है कि मेरी इस टिप्‍पणी का चौपाल के लेखक-पाठकों पर कोई खास असर हुआ नहीं। सुमित चौधरी Nisha Vyas Sheikh Shahzad Usmani और Janki Wahie के अलावा किसी अन्‍य ने उस पर कोई टिप्‍पणी ही नहीं की। बल्कि मैंने बीच में आकर मैंने स्‍वयं इस बारे में एक शिकायती टिप्‍पणी वहाँ दर्ज की।
खुद नयना जी की भी इनबॉक्‍स में यही शिकायत रही। उन्‍हें सुमित जी के सुझाव से थोड़ी मदद मिली थी। पर उन्‍हें अर्चना जी, Kapil Shastri जी Arun Kumar Gupta जी के सुझावों का इंतजार भी था। अर्चना जी और अरुण जी तो पोस्‍ट पर आए भी। पर उन्‍होंने कोई टिप्‍पणी नहीं की। कपिल जी की नजर शायद इस पोस्‍ट पर पढ़ी ही नहीं। (यह शिकायत नहीं,एक तथ्‍यात्‍मक जानकारी है।)
इतना ही नहीं नयना जी इस बात से इतनी निराश हो गईं कि उन्‍होंने मुझसे कहा, ‘मेरी रचना पर सुझाव बहुत कम आए। आप भी सुझाव देने से कतरा गए। पता नहीं क्यों?’ बहरहाल इस ‘क्‍यों’ का जवाब मैंने उन्‍हें इनबॉक्‍स में दिया है।
नयना जी की अपनी कुछ व्‍यस्‍तता थी। इसलिए प्राप्‍त प्रतिक्रियाओं के आधार पर अपनी परिमार्जित रचना समय पर नहीं भेज पाईं। इस हेतु उन्‍होंने सोमवार तक का समय माँगा था। उनसे रचना प्राप्‍त हो गई थी। लेकिन फिर मैं उसे नहीं देख पाया।
उन्‍होंने अन्‍तत: जो रचना बनाई, उसका सम्‍पादित रूप, नयना जी की सहमति से यहाँ प्रस्‍तुत है। मैंने अपने सम्‍पादन में उनके मूल कथ्‍य को बचाए रखने की भरसक कोशिश की है। नयना जी फिलवक्‍त रचना के इस रूप से संतुष्‍ट हैं।
लेकिन मेरा मानना है कि कोई भी रूप अन्तिम नहीं होता, उसमें सुधार और परिमार्जन की हमेशा गुजांइश रहती है। सो इसमें भी होगी और रहेगी।
सुबह की धूप : नयना आरती कानिटकर
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दिन भर काम में खटकर जब वह रात में खुद को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बन्‍द करते ही उसके अन्‍दर का स्व जाग जाता। स्‍व पूछता, " तुम हो कौन ? और तुम्‍हारा है क्या।"
उसका एक ही जवाब होता, "यह तो वक्त ही बताएगा।"
उसे याद आता। वह अपने छोटे से घर की खिड़की के पास हमेशा डेरा डाले रहती। हाथ में स्‍कूल की किताब होती। बाहर के आँगन का सारा नजारा उसका अपना होता। कभी ढेर सारे तोते आ बैठते अमरूद पर। खूब शोर मचाते। कभी-कभी मैना,गौरैयाँ आ बैठती मुंडेर पर। वो दौड़कर दाना लाती वे दाना खाकर फुर्र से उड़ जातीं। पेड़ों-पक्षियों के बीच कितनी खुलकर जीती थी वह। सोती भी तो खिड़की के नीचे ही थी वह। आँख खुलती उससे छनकर आने वाली रोशनी से। पक्षियों का झुँड गुजर जाता शोर मचाते हुए उसके सामने से। उसका सपना था बस उन पक्षियों की तरह खुली हवा में उड़ना।
" क्या हुआ ? नींद में हँस रही हो। फिर से वही सपना देखा है क्या? " किसन ने उसे हिलाते हुए पूछा।
" नहीं तो! नहीं तो!" वो तो मैंने..." उसने हकबकाते हुए कहा।
"तुम भी ना पता नहीं किस दुनिया में जीती हो। उठो अब भोर होने को है।"
पास पड़ी किताब को तकिए के नीचे खिसकाकर, आँख मलते हुए वह उठ कर बैठ गई।
तभी उसने खिड़की से बगुलों का एक झुँड हवा में उन्मुक्त उड़ते देखा।
"वो देखो किसन! कितने सारे.." फुर्ती से रमा उठ खड़ी हुई।
"हाँ, रमा वे अपने काम पर जा रहे हैं। हमें भी तो जाना है।" किसन बोला।
रमा ने खिड़की से छनकर आती सुबह की धूप को अपनी आँखों में भरा।
और फिर हर रात अपने स्‍व को दिए जाने वाले जवाब को दोहराती, रोज की तरह मंजिल की खोज में निकल पड़ी।

लघुकथा चौपाल -20 (भाग-एक)

यह केवल एक कथ्‍य का अंश भर है। चौपाल के लिए आया है। लेखक को लगता है कि इससे लघुकथा बन सकती है। पर उसे सूझ नहीं रहा है कि अंत कैसे किया जाए।
पर इस बार मैंने लेखक से इस बारे में कोई बातचीत नहीं की।सिर्फ यह कहा कि अभी यह लघुकथा नहीं बनी है।हालांकि मेरे सम्‍पादक मन में सवाल भी थे और दो-तीन सुझाव भी। फिलवक्‍त अपनी तरफ से कोई सुझाव नहीं दिया। सोचा, इस बार यह काम औरों को सौंप दिया जाए।
इस कथ्‍यांश में मैंने लेखक की सहमति से केवल एक-दो छोटे मोटे परिर्वतन किए हैं। जिन्‍हें अनदेखा किया जा सकता है। बाकी लेखक का ही मूल है।
अब आप लेखक से सवाल भी पूछें। लेखक को सुझाव भी दें। जाहिर है सवालों का जवाब देने के लिए फिलहाल लेखक मौजूद नहीं होगा। तो आप में से जिस किसी के पास भी उस सवाल का जवाब हो, वह स्‍वयं को इसका लेखक मानकर जवाब दे सकता है।
हाँ एक बात नोट करने लायक है कि ये लेखक चौपाल पर पहली बार प्रस्‍तुत हो रहे हैं।
सुबह की धूप : लेखक का नाम बाद में
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खुद को भूली वो जब दिन भर के काम निपटा कर अपने आप को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बंद करते ही उसके अंदर का स्व जाग जाता। स्‍व पूछता, " तुम कौन हो? तुम्हारा है क्या।"
उसका एक ही जवाब होता, "मुझे कुछ नहीं चाहिए। कभी ना कभी तो मेरा भी वक्त आएगा।"
उसे याद है। वह अपने छोटे से घर की खिड़की के पास हमेशा डेरा डाले रहती। हाथ में स्‍कूल की पुस्तक और बाहर के आंगन का सारा नजारा उसका अपना होता। कभी ढेर सारे तोते आ बैठते अमरुद पर। खूब शोर मचाते। कभी-कभी चिड़िया आ बैठती मुंडेर पर। वो दौड़कर दाना लाती। मगर जैसे ही बिखेरती वो फुर्र से उड़ जाती। मगर फिर धीरे-धीरे उनकी दोस्ती हो गई थी। घर में सिर्फ़ बाबा थे जो काम पर निकल जाते। माँ तो थी ही नहीं जो उसे टोकती। पेड़ों-पक्षियों के बीच कितना उन्मुक्‍त जीती थी वह। सोती भी तो खिड़की के नीचे ही बिस्तर लगाकर। आँख खुलती भी उससे छनकर आने वाली रोशनी से तब, जब पक्षियों का झुंड गुजरता था शोर मचाते हुए उसके सामने से।
" क्या हुआ रमा? नींद में बड़ा हँस रही हो। कुछ सपना देखा है क्या। " किसन ने उसे हिलाते हुए पूछा।
" नहीं तो! नहीं तो! "
" तुम भी ना पता नहीं किस दुनिया में जीती हो," उठो अब भोर होने को है।
" हाँ ! किसन मैंने सपने में उस खिड़की से बगुलों का एक झुंड का झुंड हवा में उन्मुक्त उड़ते देखा।" अंगड़ाई लेते रमा उठ खड़ी हुई।
" अब ज्यादा उड़ो मत। ढेर सा काम पड़ा है।" किसन ने झल्लाते हुए कहा।
उसने अपनी अस्त-व्यस्त साड़ी को ठीक किया। खिड़की से छनकर आती सुबह की धूप को प्रणाम किया। और फिर एक निर्णय के साथ बाहर को निकल पड़ी।

लघुकथा चौपाल -26 (भाग-एक)

लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है। यह कथ्‍य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, स...