Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-11 (भाग-दो)

यह लघुकथा ‘चला बिहारी ब्‍लागर बनने’ के ख्‍यात ब्‍लागर यानी सलिल वर्मा की है। वे बैंक में अधिकारी हैं। लघुकथा उनके परिवेश से ही उपजी है। लघुकथा पर आई टिप्‍पणियों का संज्ञान उन्‍होंने लिया है। कुछ बदलाव भी किया है। शीर्षक वे अब भी वारिस ही रखना चाहते हैं। बाकी कुछ सवालों के जवाब वे यहाँ स्‍वयं देंगे। तो प्रस्‍तुत है संशोधित लघुकथा।
वारिस : सलिल वर्मा
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वह उन्नीस-बीस साल का नौजवान रहा होगा। बदन पर पुराने कपड़े, जो इधर-उधर से फटे हुए थे। उन पर ग्रीज़ के दाग थे। जिन्हें देखकर यह अंदाज़ा लगता था कि वह किसी मोटर गराज में काम करता होगा।
सकुचाते हुए वह शीशे का दरवाज़ा धकेलकर बैंक मैनेजर के केबिन में दाख़िल हुआ। उसने अपनी जेब से एक मुड़ा हुआ, तह किया हुआ काग़ज़ निकालकर मैनेजर के सामने रख दिया, "सर! हमको इसका पैसा दिलवा दीजिये!"
वह एक फिक्स्ड डिपॉज़िट की रसीद थी, दस हज़ार रुपये की! जिसके मैच्योर होने में अभी छः महीने बाक़ी थे। जमा करने वाले का नाम लिखा था - उमेश प्रसाद।
"ये उमेश प्रसाद कौन है?" मैनेजर ने पूछा।
"हमारा बाप !"
"कहाँ है !"
"मर गया थोड़ा टाइम पहले!"
"मर गया !" जैसे मैनेजर आश्वस्‍त होना चाह रहा था।
"हाँ, मर गया !" नौजवान बोला।
"फिर तो इन पैसों को पाने के लिये तुम्हें कुछ और काग़ज़ जमा कराने होंगे। ये बताओ, तुम्हारे और कितने भाई-बहन हैं?" मैनेजर ने पूछा।
"हम अकेले हैं साहब! माँ-बाप का एकलौता संतान।"
"अच्छा ठीक है...पर... एक मिनट! तुम्हारी माँ ज़िन्दा है? अगर वो ज़िन्दा है तो उसके भी साइन करवाने होंगे बैंक के फॉर्म पर।" मैनेजर ने क़ायदा समझाते हुये कहा।
"माँ तो ज़िन्दा है... लेकिन उसका साइन नहीं मिल सकता है।"
"कोई बात नहीं। साइन नहीं तो अँगूठा लगा देगी... कल साथ लेते आना।" मैनेजर ने रास्ता। सुझाया।
"साहब! माँ नहीं आ सकती है यहाँ।" नौजवान रुआँसा हो गया।
"आना तो होगा ही। बिना आए पैसे कैसे मिलेंगे?" मैनेजर ने पूछा। नौजवान फिक्स्ड डिपॉज़िट का काग़ज़ उठाकर मोड़ता हुआ, मैनेजर के केबिन से बाहर निकलने लगा। उसके कदमों में जो तेज़ी आते हुए थी, वह अब नज़र नहीं आ रही थी।
मैनेजर ने पीछे से आवाज़ लगाई, "बेटा! आख़िर बात क्या है? तुम्हारी माँ बैंक में क्यों नहीं आ सकती?"
"इसलिए कि वो जेल में है।" नौजवान की आँखों के कोर गीले हो चले थे। "जेल में! क्यों!!!"
"मेरे बाप को मार डालने का सज़ा काट रही है साहब।"
"बाप की हत्या... जेल में... सज़ा????" मैनेजर के सामने तमाम सवाल मुँह बाए खड़े थे। उसने पूछा,"मैं कुछ समझा नहीं।"
"साहब! हमारा बाप बहुत दारू पीता था। माँ घर-घर काम करके जो पैसा कमाती थी, उससे हमारा पढ़ाई का फीस भरती थी। बाप वो पैसा भी छीनकर दारू पी जाता था और माँ को पीटता था।"
“फिर ये दस हज़ार रुपये कहाँ से आए उसके पास और उसने बैंक में कैसे जमा करवाए।?”
“ये माँ ने बहुत मुश्किल से अपनी एक मेम साहब के पास जमा कर रखे थे। एक दिन बाप को न जाने कैसे खबर लग गयी।"
“फिर क्या हुआ?”
“मेम साहब के साहब बैंक में काम करते थे। उन्होंने जबर्दस्ती फिक्स करने को कहा था और बाप नाराज नहीं हो इसलिये उसी के नाम पर जमा करवा दिया और रसीद माँ ने अपने पास छिपाकर रख दिया था।"
"फिर ये सब कैसे हुआ?”
"कैसे क्या साहब, एक दिन बाप ने ये पैसे माँ से माँगे। माँ का बर्दास्त करने का ताकत खतम हो गया। बाप ने जैसे ही उस पर हाथ उठाया, माँ ने उसका हाथ उमेठकर परे धकेल दिया। बाप माथा के बल सिल-बट्टे पर गिरा और वहीं ठंडा हो गया।"
मैनेजर कुछ और कहता या जवाब देता, तब तक वह नौजवान उसकी नज़रों से ओझल हो चुका था।

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