Tuesday, June 19, 2018

लघुकथा चौपाल-18 (भाग-दो)

यह 2800 से अधिक शब्‍दों की पोस्‍ट है। कृपया समय निकालकर पढि़ए।
‘लगी, नही लगी’ यह तथाकथित लघुकथा Kapil Shastri की है। तथाकथित इसलिए कि कम से मैं तो अब भी इसे इस रूप में स्‍वीकारने को तैयार नहीं हूँ। इस रूप पर तमाम साथियों ने अपनी सहमति जताई है। तमाम ने असहमति भी। रचना पर महत्‍वपूर्ण विमर्श भी हुआ है। अर्चना तिवारी ने तो चार्ल्स कूले के आत्मदर्पण के सिद्धांत (Looking glass of self) की चर्चा भी कर ली।
अब एक सम्‍पादक और समीक्षक के नाते मैं कुछ कहना चाहता हूँ।
पहली बात तो यह है कि इस लघुकथा को कहने का उद्देश्‍य क्‍या है ?
अगर उद्देश्‍य एक गरीब व्‍यक्ति की मजबूरी का चित्रण करना है, जिसके लिए सम्‍मान से ज्‍यादा अपनी जीविका कमाना महत्‍वपूर्ण है। तो उसके लिए लघुकथा का दूसरा हिस्‍सा ही पर्याप्‍त है। और ऐसी स्थिति में वह एक पूर्ण लघुकथा को प्रस्‍तुत करता है। (पहला सम्‍पादित रूप)
अगर उद्देश्‍य मनोवैज्ञानिक स्‍तर पर उतरकर दो तरह की चोटों में साम्‍यता जोड़ना और तुलना करना है, तो यह लघुकथा उसमें कतई असफल है। क्‍योंकि लघुकथा का अंत पाठक को गरीब की मजबूरी और जीविका के प्रश्‍न पर लाकर छोड़ देता है। पाठक के पास यह सोचने का समय नहीं है कि वह पहले वाले हिस्‍से से इस बात को जोड़े। बल्कि अगर उस और ध्‍यान जाता है तो खीझ ही पैदा होती है। (दूसरा सम्‍पादित एवँ पहले भाग में प्रस्‍तुत रूप)
सामान्‍यत: यह मान्‍यता है कि लेखक अपना भोगा हुआ अनुभव रचना में पिरोता है, या फिर जिसे अपने आसपास देखता है। यह भी देखा गया है कि अच्‍छे अनुभव प्रथम व्‍यक्ति के रूप में रचनाओं में आते हैं, जबकि कटु या बुरे अनुभव अन्‍य पात्रों के माध्‍यम से। कटु या बुरे अनुभवों को प्रथम व्‍यक्ति के रूप में किसी भी रचना में ढालने के लिए साहस की जरूरत होती है। हो सकता है, मैं गलत होऊँ, पर यहाँ लेखक ऐसा साहस करने से कतराता नजर आ रहा है।
अगर लेखक वास्‍तव में दोनों घटनाओं में एक साम्‍यता जोड़कर कुछ कहना चाहता है तो घटनाओं से प्रभावित होने वाले पात्र एक-दूसरे से बहुत अधिक दूर नहीं हो सकते हैं। इस बात को ध्‍यान में रखकर मैंने इसे एक अन्‍य रूप दिया है। इसे बहुत अधिक अच्‍छा तो नहीं कहा जा सकता, पर इसमें दोनों घटनाओं को जोड़ने की कोशिश अवश्‍य है। यह रचना आधी कपिल जी की और आधी मेरी है। यह उदाहरण मात्र है। (तीसरा रूप)
दो अलग-अलग घटनाओं को भावना के एक स्‍तर पर जोड़कर अभिव्‍यक्‍त करने का एक प्रयास मैंने भी अपनी लघुकथा ‘दुनिया का कंधा’ में किया है। घटनाओं का आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन उनसे प्रभावित होने वाला नायक एक ही है। इसे मेरी ही दीवार पर ढूँढकर पढ़ा जा सकता है।
नहीं लगी : कपिल शास्‍त्री की असम्‍पादित मूल रचना
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घर से निकलने से पहले निर्विघ्न यात्रा की कामना से तीनों ने मत्था टेककर भगवान को प्रणाम किया। निर्मला और पति जगदीश बाथरूम व किचन में जाकर कोई नल खुला तो नहीं छूट गया इसकी पुष्टि कर रहे थे। पाँच वर्ष पहले ही दुनिया में आये अतिआत्मविश्वासी,धार्मिक संस्कारों में पल बढ़ रहे बेटे गुड्डू ने अपने भार से भी अधिक के सूटकेस को खुद ही उठाकर बाहर ले जाने की ठानी। इसी उपक्रम में देहरी से टकराकर गिर पड़ा और जोर जोर से अलड़ाने लगा। रुदन सुनकर माता पिता बाहर आये।
निर्मला ने पहले झिड़का "अपने आप को बहुत बड़ा समझने लगा है! हम आ तो रहे थे न! ज़रा भी सब्र नहीं है।" फिर उठाकर उसके कपड़े झाड़े।
जगदीश ने जमीन पर दिखाते हुए उसका ध्यान भटकाते हुए मनाया "अरे देखो कितनी चींटिया मर गयीं, नहीं लगी, नहीं लगी।"
मानसिक अवस्था में हुए परिवर्तन से गुड्डू ने भी मान लिया कि नहीं लगी। आंसुओं वाले गाल लिए चेहरा बाहर जाने की खुशी में फिर चहक उठा।
मुख्य द्वार पर ताला लगाने के बाद कुछ दूर तक सूटकेस को व्हील के सहारे खींचकर ले जाने के बाद जगदीश ने एक रिक्शा कर लिया था। डामर की उस ऊबड़खाबड़ रोड पर अधेड़ उम्र का रिक्शेवाला बामुश्किल ही उन तीनों को खींच पा रहा था। रोड संकरी थी। पीछे से एक खुली जीप साइड देने के लिए लगातार हॉर्न बजा रही थी। इसका भी उस पर कोई असर नहीं था। अगर साइड देने के लिए वह कच्चे रास्ते पर उतार लेता तो फिर रास्ते पर लाने के लिए उसे और दम लगाना पड़ता। आखिकार खुली जीप को ही ओवरटेक करने के लिए कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा।
जीप में ड्राइवर को मिला कर छह दबंग किस्म के युवक थे। रोड पर वापस चढ़ाकर थोड़ा आगे जाने पर एक युवक ने खड़े होकर और चिल्लाकर रिक्शेवाले को एक बहन की भद्दी सी गाली बकी। अपशब्दों से आहत हुए बिना रिक्शेवाला पेडल मारता रहा। जगदीश सकपकाकर अगले-बगले झांकने लगा। गुड्डू ने उत्सुकतावश उसकी ठुड्डी वापस अपनी और मोड़कर इस गाली का अर्थ जानना चाहा।
जगदीश ने बात को घुमाते हुए कहा, "अरे बेटा वो लव मतलब होता है प्यार,वो अपनी बहन से बहुत प्यार करते हैं इसलिए बहन को प्यार दे और बहन से प्यार ले की बात कर रहें हैं।" फिर उसका ध्यान भटकाने के लिए एक गीत गाने लगा-"प्यार ले,प्यार दे।"
निर्मला से रहा नहीं गया और रिक्शेवाले से बोली, "वो नासपिटे,बिगड़े रईसजादे घूर-घूरकर देख रहे थे और तुम्हें गाली बक रहे थे। तुम्हें गुस्सा नहीं आया?’’
रिक्शेवाले की मजबूरी पेडल मारते-मारते ही बोल उठी, "अपने को गाली नहीं लगती बहनजी।"
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इनबॉक्‍स में कपिल जी ने उक्‍त रचना भेजी थी। जवाब में मैंने उनसे कहा कि आपकी रचना देखी...मेरे ख्‍याल में यह मात्र इतनी ही है...
जो नहीं लगी : राजेश उत्‍साही द्वारा सम्‍पादित पहला रूप
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जगदीश ने स्‍टेशन की यात्रा के लिए एक रिक्शा कर लिया था। डामर की ऊबड़खाबड़ रोड पर अधेड़ उमर का रिक्शेवाला बामुश्किल ही उन तीनों को खींच पा रहा था। रोड संकरी थी। पीछे से एक खुली जीप साइड देने के लिए लगातार हॉर्न बजा रही थी। इसका भी उस पर कोई असर नहीं था। अगर साइड देने के लिए वह कच्चे रास्ते पर उतार लेता तो फिर रास्ते पर लाने के लिए उसे और दम लगाना पड़ता। आखिरकार खुली जीप को ही ओवरटेक करने के लिए कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा।
जीप में छह-सात दबंग किस्म के युवक थे। रोड पर वापस चढ़ाकर थोड़ा आगे जाने पर उनमें से एक ने खड़े होकर और चिल्लाकर रिक्शेवाले को भद्दी-सी गाली बकी। अपशब्दों से आहत हुए बिना रिक्शेवाला पेडल मारता रहा। जगदीश सकपकाकर अगले-बगलें झाँकने लगा। गुड्डू ने उत्सुकतावश उसकी ठुड्डी वापस अपनी ओर मोड़कर इस गाली का अर्थ जानना चाहा।
जगदीश चुप्‍पी मार गया।
पर निर्मला से रहा नहीं गया। रिक्शेवाले से बोली, "वो नासपिटे,बिगड़े रईसजादे घूर-घूरकर देख रहे थे और तुम्हें गाली बक रहे थे। तुम्हें गुस्सा नहीं आया?’’
पेडल मारते-मारते रिक्शेवाले की मजबूरी बोल उठी, "गरीब को भूख लगती है, बहन जी गाली नहीं।"
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इस रूप पर इनबॉक्‍स में कपिल जी से यह संवाद हुआ :
Kapil Shastri : वो घर वाला वाक्या पूरा गायब। बच्चे को लग जाती है तो हम बोलते हैं नहीं लगी। क्या इन दो घटनाओं का कथा में कोई corelation नहीं बन सकता? वैसे पंच अच्छा बना दिया आपने।
Rajesh Utsahi : पहले तो इस बात की तरफ ध्‍यान ही नहीं गया कि दोनों में आप कोई एक बात देख रहे हैं। पर अब देखा। लेकिन दोनों को जोड़कर कोई बात बन नहीं रही।
Kapil Shastri : एक बच्चे की मानसिक अवस्था को हम चंद पलों में बदल देते हैं जबकि एक गरीब उस अवस्था के लिए तैयार होता है। इस बात को लेकर ही मैंने कथा लिखी है। इस बात को मैं कथा में लेना चाहता हूँ। हालांकि आपके सम्‍पादन में कथा बहुत चुस्त-दुरुस्त हो गयी है। लेकिन कौन गुड्डू? बेटा शब्द भी नहीं आया। कौन निर्मला? पत्नी शब्द भी नहीं आया। हालांकि वो understood है फिर भी अगर ये दोनों घटनाएँ कथा में शामिल हो सकें तो अच्छा होगा भले ही कुछ शब्द व वाक्यों की कांटछांट करनी पड़े। शीर्षक के हिसाब से भी दोनों वाकये में समानता है लेकिन परिस्थिति अलग-अलग है। आप भी थोड़ा और विचार करें। एक तरफ बाल मानसिकता है और दूसरी तरफ गरीब की मजबूरी।
जगदीश ने स्टेशन जाने के लिए रिक्शा कर लिया था और रिक्शेवाला उन तीनों को बमुश्किल खींच पा रहा था। इन वाक्यों में भी अस्पष्टता झलक रही है। ऐसा लग रहा है जैसे अकेले जगदीश ने ही रिक्शा किया है।
इसका प्रत्‍युत्‍तर मैंने कपिल जी को इस तरह दिया :
Rajesh Utsahi : आपके अनुरोध पर यह ड्राफ्ट बनाया है। पर मुझे तो बहुत जम नहीं रहा है....क्‍योंकि दोनों घटनाओं की तुलना का कोई अर्थ नहीं है, और न ही उससे कुछ निकल रहा है।
लगी, नहीं लगी : राजेश उत्‍साही द्वारा सम्‍पादित दूसरा एवँ प्रस्‍तुत रूप
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घर से निकलने से पहले निर्विघ्न यात्रा की कामना से तीनों ने मत्था टेककर भगवान को प्रणाम किया। निर्मला और जगदीश बाथरूम व किचन में जाकर कोई नल खुला तो नहीं छूट गया इसकी पुष्टि कर रहे थे। पाँच साल के अतिआत्मविश्वासी गुड्डू ने अपने भार से भी अधिक के सूटकेस को खुद ही उठाकर बाहर ले जाने की ठानी। इसी उपक्रम में देहरी से टकराकर गिर पड़ा और जोर जोर से अलड़ाने लगा। रुदन सुनकर माता पिता बाहर आये।
वह जोर-जोर से चिल्‍लाए जा रहा था, ‘‘लग गई, लग गई।’’
निर्मला ने पहले झिड़का, "अपने आप को बहुत बड़ा समझने लगा है! हम आ तो रहे थे न! ज़रा भी सब्र नहीं है।" फिर उठाकर उसके कपड़े झाड़े।
जगदीश ने ज़मीन पर दिखाते हुए उसका ध्यान भटकाते हुए मनाया, "अरे देखो तुम्‍हारे गिरने से चीटीं मर गई। तुम्‍हें नहीं लगी, नहीं लगी।"
गुड्डू ने भी मान लिया कि नहीं लगी। आंसुओं वाले गाल लिए चेहरा बाहर जाने की खुशी में फिर चहक उठा।
जगदीश ने स्‍टेशन की यात्रा के लिए एक रिक्शा कर लिया था। डामर की ऊबड़खाबड़ रोड पर अधेड़ उमर का रिक्शेवाला बामुश्किल ही उन तीनों को खींच पा रहा था। रोड संकरी थी। पीछे से एक खुली जीप साइड देने के लिए लगातार हॉर्न बजा रही थी। इसका भी उस पर कोई असर नहीं था। दरअसल साइड देने के लिए वह कच्चे रास्ते पर उतार लेता तो फिर रास्ते पर लाने के लिए उसे और दम लगाना पड़ता। आखिरकार खुली जीप को ही ओवरटेक करने के लिए कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा।
जीप में छह-सात दबंग किस्म के युवक थे। जीप को रोड पर वापस चढ़ाकर थोड़ा आगे जाने पर उनमें से एक ने खड़े होकर और चिल्लाकर रिक्शेवाले को दो-तीन भद्दी-सी गालियाँ बकीं। अपशब्दों से आहत हुए बिना रिक्शेवाला पैडल मारता रहा। जगदीश सकपकाकर बगलें झाँकने लगा। गुड्डू ने उत्सुकतावश उसकी ठुड्डी वापस अपनी ओर मोड़कर एक खास गाली का अर्थ जानना चाहा। जगदीश चुप्‍पी मार गया।
पर निर्मला से रहा नहीं गया। रिक्शेवाले से बोली, "वो नासपिटे,बिगड़े रईसजादे घूर-घूरकर मुझे देख रहे थे और तुम्हें गाली बक रहे थे। तुम्‍हें गाली नहीं लगी। तुम्हें गुस्सा नहीं आया? "
रिक्‍शावाला चुपचाप रिक्‍शा खींचता रहा।
निर्मला उस पर भड़क उठी, " कैसे आदमी हो, तुम्‍हें गाली भी नहीं लगती?"
रिक्‍शेवाले ने पैडल रोककर, पीछे मुड़कर कहा, "नहीं लगती, बहन जी नहीं लगती। गरीब को गाली नहीं, भूख लगती है।"
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(नोट : इस रूप में....// निर्मला से रहा नहीं गया। रिक्शेवाले से बोली, "वो नासपिटे,बिगड़े रईसजादे घूर-घूरकर मुझे देख रहे थे …..//। में ‘मुझे’ शब्‍द मेरे द्वारा जोड़ा गया था। क्‍योंकि मुझे लगा था कि रिक्‍शेवाले को घूरकर देखने से घूरने वाले को कुछ हासिल नहीं हो रहा और न ही जिसे घूरा जा रहा है, उसे कोई तकलीफ या असहजता हो रही होगी। तो जाहिर है यहाँ वे निर्मला को घूर रहे होंगे। पर कपिल जी कहना है कि वे रिक्‍शे वाले को ही घूर रहे थे।)
इस सम्‍पादित रूप पर कपिल जी से यह संवाद हुआ :
Kapil Shastri : अब बहुत अच्छी लग रही है मुझको। शीर्षक भी उत्सुकता जगाता है और अंत भी और प्रभाव पैदा कर रहा है।
Rajesh Utsahi : अब कथा तो आपकी है। मेरी तो इससे सहमति नहीं है। आप कहेंगे तो इसके इस रूप को मैं अपनी असहमति के साथ चौपाल पर लगा दूँगा।
Kapil Shastri : ये तो आपकी असहमति के साथ पाठकों के समक्ष भी एक प्रश्न खड़ा कर रही है कि अच्छी "लगी,नहीं लगी?"
Rajesh Utsahi : हाँ तो स्‍पष्‍ट रूप से बताइए कि क्‍या इसे चौपाल पर लगाया जाए....?
Kapil Shastri : जरूर।
Rajesh Utsahi : ठीक है, इंतजार कीजिए।
Kapil Shastri : अगर आप असहमति पहले ही जता देंगे तो संभव है इससे पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर इसका असर पड़े। इसलिए असहमति भाग 2 में जताएँ। मेरा विचार है कि जब चौपाल में रचनाकार का नाम भी उन्मुक्त प्रतिक्रियाओं के लिए गुप्त रखा जा रहा है ऐसे में अगर एडमिन पहले ही असहमति जता दे तो इससे भी प्रतिक्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है और पाठक उस दिशा में सोचकर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। बाकी जैसा आप ठीक समझें।
Rajesh Utsahi : लेकिन मेरी दिक्‍कत यह है कि चौपाल मेरा निजी प्रयास है, मैं उसे समूह की तरह नहीं चला सकता। इसलिए यहाँ मैं एडमिन नहीं हूँ। हाँ प्रस्‍तुति मेरी है, तो इसी वजह से मुझे कुछ तो कहना होगा।
Kapil Shastri : आप पाठकों की राय पर छोड़ दीजिए। सिर्फ इतना लिख दीजिये, "मुझे तो नहीं लगी, आपको जैसी लगे, लगी कि नहीं लगी प्रतिक्रियाएँ दीजिये।"
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बहरहाल रचना आप सबने पढ़ ही ली है। भाग 2 लगाने से पहले मैंने कपिल जी से कहा, " कपिल जी, अपनी रचना में आप जो भी परिवर्तन करना चाहें, वह करके शाम तक भेज दें।"
उनका जवाब आया कि, "पाठकों का निर्णय तो मिल चुका है। अब कोई परिवर्तन नहीं करना। अब एक लघुकथा में दो घटनाएँ हों तो पहले वाली को लोग भूमिका मान लेते हैं जबकि वो भी कथा का ही अंग है। टिपण्णी में शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी ने ही लेखक का मंतव्य जानने की कोशिश की है। एक तुलनात्मक विश्लेषण का भी अभाव लगा। एक बच्चे को लग जाती है तब भी हम कहते हैं "नहीं लगी" और एक गरीब को आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि तुम्हे कैसे नहीं लगी!" इन दो बातों को लेकर ही कथा लिखी थी अन्यथा प्रशंसा के लिए तो एक बेहतर लघुकथा तैयार ही है। मैं अपना मंतव्य टिप्‍पणी में स्पष्ट कर दूँगा। सिर्फ बाद वाली घटना तो एक वर्णन हो जाता उसमे लेखक की दृष्टि का अभाव होता। यह मेरा विचार है।
राजेश उत्‍साही द्वारा बनाया तीसरा रूप : लगी, नहीं लगी
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घर से निकलने से पहले निर्विघ्न यात्रा की कामना से तीनों ने मत्था टेककर भगवान को प्रणाम किया। निर्मला और जगदीश बाथरूम व किचन में जाकर कोई नल खुला तो नहीं छूट गया इसकी पुष्टि कर रहे थे। पाँच साल के अतिआत्मविश्वासी गुड्डू ने अपने भार से भी अधिक के सूटकेस को खुद ही उठाकर बाहर ले जाने की ठानी। इसी उपक्रम में देहरी से टकराकर गिर पड़ा और जोर जोर से अलड़ाने लगा। रुदन सुनकर माता-पिता बाहर आये।
वह जोर-जोर से चिल्‍लाए जा रहा था, ‘‘लग गई, लग गई।’’
निर्मला ने पहले झिड़का, "अपने आप को बहुत बड़ा समझने लगा है! हम आ तो रहे थे न! ज़रा भी सब्र नहीं है।" फिर उठाकर उसके कपड़े झाड़े।
जगदीश ने जमीन पर दिखाते हुए उसका ध्यान भटकाया, "अरे देखो तुम्‍हारे गिरने से चीटीं मर गई। तुम्‍हें नहीं लगी, नहीं लगी।"
गुड्डू ने भी मान लिया कि नहीं लगी। आँसुओं भरा चेहरा बाहर जाने की खुशी में फिर चहक उठा।
जगदीश ने सारा सामान कार में डाला और निकल पड़ा। डामर की ऊबड़खाबड़ रोड पर कार धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। रोड संकरी भी थी। पीछे से एक खुली जीप साइड देने के लिए लगातार हॉर्न बजा रही थी। जगदीश पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था। हो भी नहीं सकता था। दरअसल साइड देने के लिए कार को कच्चे रास्ते पर उतारना जोखिम लेना था। आखिरकार खुली जीप को ही ओवरटेक करने के लिए कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा।
जीप उतरी और तेजी से वापस रोड पर आकर कार के सामने रुक गई। जगदीश ने ब्रेक लगाकर जैसे-तैसे कार को भिड़ने से रोका। जीप में छह-सात दबंग किस्म के युवक थे। उनमें से एक खड़े होकर जगदीश को कुछ-कुछ कहे जा रहा था। साथ ही लगातार भद्दी-सी गालियाँ दे रहा था। दूसरा भद्दे तरीके से निर्मला को घूरे जा रहा था। अपशब्दों से आहत और गुस्‍से में भर आया जगदीश सीट बेल्‍ट खोलते हुए, कार से उतरने का उपक्रम करने लगा।
साइड की सीट पर बैठी निर्मला ने उसे रोकते हुए कहा, "अरे क्‍या कर रहे हो, जाने भी दो।"
जगदीश बोला, "ये बिगड़े रईसजादे घूर-घूरकर तुम्‍हें देख रहे हैं और मुझे गाली दे रहे हैं। और तुम कह रही हो, जाने दो? "
निर्मला शांत भाव से बोली, " उनके घूरने से मैं घिस थोड़ी जाऊँगी। और उन्‍होंने तुम्‍हें गाली दी, पर तुम्‍हें लगी क्‍या ? "
जगदीश कुछ कहता, उससे पहले ही पीछे की सीट पर बैठा गुड्डू चिल्‍लाया, "नहीं लगी, नहीं लगी।"
निर्मला मुस्‍कराई। जगदीश भी मुस्‍कराया। उसने सीट बेल्‍ट लगाते हुए कहा, " सही बात है, जब गुड्डू को गिरकर भी नहीं लगी, तब मुझे ‘बिना गिरे’ कैसे लग सकती है।"
जीप जा चुकी थी। रास्‍ता अब साफ था।

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