इसका कथ्य नया तो नहीं कहा जा सकता, पर है आकर्षित करने वाला। दूसरे शब्दों में यह एक फार्मूला कथा है। कथनी और करनी में अन्तर बताने वाली। मुझे शायद इस वजह से अच्छी लगी कि इसका सम्बन्ध शिक्षा से है। मूल रचना में रचनाकार की सहमति से संशोधन और सम्पादन किया गया है।
बाकी अब आप बताएँ।
विद्या : लेखक का नाम बाद में
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कक्षा में सर नहीं थे। बच्चे सर के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक सर के आने की आवाज सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
सर ने कक्षा शुरू की, "बच्चो ! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने जोर से आवाज लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||"
"समीर,अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ...."
"ठीक !"
"विद्या विनय देती है और...और !"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"
बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, ' विद्या विनय देती है.... !'
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