लघुकथाचौपाल चैलेंज के जवाब में कई रचनाएँ आई हैं। यह उनमें से एक है।
यह कथ्य और उसके निर्वाह के नजरिए से चौपाल के लिए बिलकुल ‘फिट’ है, सो इसे स्वीकार करने में हमने बस उतनी ही देर लगाई,जितनी फेसबुक के इनबॉक्स से संदेशा जाने में लगती है। लेकिन भाषा,वाक्य,वर्तनी, विराम चिन्ह तथा कही गई बातों की तार्किकता, उनका एक-दूसरे से सम्बन्ध विषयक सम्पादन की दरकार लग रही थी। हमने इस बाबत रचनाकार से पूछा। फिर उनकी अनुमति से रचना को सम्पादित करके वापस भेजा।
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जवाब में उनके साथ इनबॉक्स में कुछ इस तरह का संवाद हुआ :
रचनाकार :
जो कहने जा रहा हूँ उसे अपने सम्पादन पर टिप्पणी मत समझियेगा। मैं सिर्फ अपनी बात कह रहा हूँ। और आप के मंच के हिसाब से जो सही है उसी के अनुसार ही निर्णय कीजियेगा।
क्या ये संभव है कि जैसे मैंने कहानी लिखी है उसे वैसा ही प्रकाशित किया जाए बिना सम्पादित रूप। ताकि सभी को बिलकुल वही पढ़ने को मिले जो पूरी तरह से मैंने लिखा है। पोस्ट पर ही उसकी कमियों को खुल कर बताया जाए ताकि उसके सम्पादन के कारणों पर भी परिचर्चा सभी के सामने हो। इससे दूसरे मेरी तरह थोड़ा बहुत और सामान्य लिखने वालों को सीखने को भी मिलेगा (मुझे भी) और लिखने के लिए प्रोत्साहन भी कि सभी लिख सकते हैं।
राजेश उत्साही :
1. जैसा आपने लिखा है, वैसा का वैसा आप अपनी ही वॉल पर प्रकाशित कर सकते हैं। उसे मेरी वॉल पर या चौपाल पर लगाने का क्या फायदा। मेरा ख्याल है कि आपकी वॉल पर कहीं ज्यादा लोग पढ़ेंगे।
2. फेसबुक पर लघुकथा समूहों के साथ पिछले तीन साल से अलग-अलग रूपों में जुड़ा रहा हूँ। उनमें जो अनुभव हुए हैं, उनको ध्यान में रखकर अपनी वॉल पर यह गतिविधि आरम्भ की है।
3. यह संयोग है कि आपने पहली बार लघुकथा के रूप में लिखकर मुझे भेजा, उसका कथ्य मुझे उपयुक्त लगा। अन्यथा अधिकांशत: रचनाओं को मुझे खेद सहित मना करना पड़ता है। वे सम्पादन करने लायक भी नहीं होती हैं।
4. जहाँ तक आपके या रचनाकार के सीखने का मामला है, तो यह सारा अभ्यास उसी के लिए है। एक हद तक मैं रचनाकार के साथ चर्चा करके या सम्पादन करके उसकी कमियों की ओर इशारा करने की कोशिश करता हूँ। कुछ और बातें चौपाल पर अन्य साथी कहते हैं।
5. फिलहाल चौपाल के फार्मेट में असम्पादित रचना प्रकाशित करने का प्रावधान नहीं है।
6. वैसे पिछले दिनों एक आधी-अधूरी रचना को बिना सम्पादित किए प्रकाशित करके वह प्रयोग भी करके देख लिया। उसका कोई नतीजा नहीं निकला। लोगों ने उस पर टिप्पणी करना भी जरूरी नहीं समझा।
7. बहरहाल केवल आपकी मूल रचना ज्यों की त्यों तो प्रकाशित नहीं हो सकेगी। हाँ, यह जरूर हो सकता है कि सम्पादित और असम्पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों।
8. अब आप जैसा आदेश करें।
एक और बात .... इसे ज्यों का त्यों प्रकाशित करने के लिए कई सारे लघुकथा समूह खुशी-खुशी स्वीकार कर लेंगे।
रचनाकार :
सम्पादित और असम्पादित रूप दोनों एक साथ प्रकाशित हों। क्या यह हो सकता है।
राजेश उत्साही :
हाँ, वह हो सकता है। वह मैंने पहले भी किया है।
रचनाकार :
यदि आप को कोई समस्या नहीं है तो ठीक है।
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तो रचनाकार के विशेष आग्रह पर रचना के दोनों रूप यहाँ दिए जा रहे हैं। असम्पादित रचना में सिवाय पूर्णविराम चिन्ह के पहले आ रहे अतिरिक्त स्पेश को कम करने के अलावा, एक अनुस्वार का सम्पादन भी नहीं किया गया है।
जबकि सम्पादित रचना को उस हद तक ही सम्पादित किया गया है, जो उसके लिए न्यूनतम रूप में आवश्यक था। वह अब भी और बेहतर हो सकती है। पर यह काम उसके मूल रचनाकार को ही करना होगा। जाहिर है सम्पादन मैंने किया है। तो अगर अच्छा लगे तो बेशक उसका जिक्र करें, लेकिन उसके कसीदे काढ़ने से बचें।
तो सुधी पाठक पढ़ें। अपेक्षा है कि कथ्य और उसके निर्वाह पर विशेष ध्यान दें। उनकी चर्चा करें। उसके बाद अन्य महत्वपूर्ण बातों की।
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बेटर हॉफ : ज्यों की त्यों यानी असम्पादित
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उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वो नई विवाहिता थी, लेकिन जिस सहजता से दोनों पति पत्नी होटल में खाना खाते रिश्तेदारों के बीच भी बाते कर रहे थे लगता था जैसे दोनों की पहचान बहुत पुरानी है।
" ये आखरी मंदिर था ना या अभी और भी मंदिरो में दर्शन बाकि है " वह पहला कौर ख़त्म कर मुस्कराते बोली।
" ओह ! तुम्हे मंदिर जाना नहीं पसंद है क्या " उसने जवाब की जगह मुस्कराते सवाल किया।
" तुम्हे कैसे पता "
" तुम्हारे चेहरे पर लिखा है "।
वो जोर से हंस पड़ी पर सामने ही अपने सासु माँ को देख झेप चुप हो गई। माँ की प्लेट में रोटी ख़त्म हो चुकी थी लेकिन वो चुपचाप बैठी थी ससुर जी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने आस पास वेटर को देखने के लिए नजर दौड़ाई वो आवाज देने ही वाली थी कि " क्या हुआ कुछ चाहिए क्या मै बुला देता हु वेटर को "
" नहीं माँ की रोटियां ख़त्म हो गई है वेटर को और लाने के लिए बोल दो "
तभी ससुर जी ने आखरी कौर मुंह में डालते हुए जोर से आवाज लगाई " भाई कब से बोला है रोटियों के लिए अभी तक दी नहीं। बहुत ख़राब सर्विस है आप की। एक भी बनी है वही दे जाओ "। वेटर तुरंत ही एक रोटी रख जाता है। माँ रोटी उठा कर पिता जी की प्लेट में रख देती है। वो दोनों अब भी अपने बातो में खोये हुए थे।
" तुम पूजा पाठ करते हो क्या "
" नहीं मै भी ज्यादा नहीं करता लेकिन ये सब विवाह की रस्मे है तो बड़ो का मन रखने के लिए कर लेता हु "
" ओह तब ठीक है, क्योकि अभी हम दोनों को मेरे घर जा कर भी बड़ो का मन रखना है। " वेटर दूसरी रोटी ला मेज पर रख देता है माँ रोटी उठाती है और पहले बेटे और पति के प्लेटो पर नजर डाल फिर अपनी प्लेट में रख खाना शुरू करती है लेकिन अब भी उसकी नजर अपन बेटे की प्लेट पर थी।
" तुम्हे पता है मै इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सब घर में पहली बेटी है कर इतना कुछ कर डाला "।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करे विवाह में दिखावे के नाम पर , लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है आखरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए। "
यह सुन दोनों एक दूसरे देख मुस्कुराने लगे और दोनों ने अपने प्लेट की रोटी का आखरी टुकड़ा मुंह में डाला। वेटर तुरंत ही एक रोटी उन दोनों के सामने रख चला जाता है। दोनों एक साथ उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाते है , पर मेहँदीवाले हाथ रोटियों तक पहले पहुंच जाते है। उसने रोटी उठाते ही उसके दो हिस्से किये एक अपनी प्लेट में रखा दूसरा उसकी। दोनों फिर सहज हो एक दूसरे से बाते करने और खाने में व्यस्त हो गए। लेकिन सामने बैठे लोगो में कोई भी अब सहज न था
बेटर हॉफ : सम्पादित
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वे सब होटल में थे।
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वे सब होटल में थे।
उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग बता रहा था कि वह नव-विवाहिता थी। वे दोनों खाना खाते हुए बातचीत कर रहे थे।
" ये आखिरी मंदिर था ना। या अभी दर्शन के लिए और भी बाकी हैं?" वह कौर खत्म कर मुस्कराते हुए बोली।
" क्यों ! तुम्हें मंदिर जाना पसंद नहीं है क्या?" पति ने मुस्कराते हुए उल्टा सवाल किया।
" तुम्हें कैसे पता?" वह थोड़े आश्चर्य से बोली।
" तुम्हारे चेहरे पर जो लिखा है।" पति ने कहा।
सुनकर वह जोर से हँस पड़ी। फिर अगले ही पल सामने बैठी सासू माँ से नजरें मिलते ही झेंपकर चुप हो गई। उनकी प्लेट में रोटी खत्म हो गई थी, लेकिन वे चुपचाप बैठी थीं। ससुर जी भी उन पर ध्यान दिए बिना अपने खाने में व्यस्त थे।
उसने वेटर को बुलाने के लिए आसपास नजर दौड़ाई। उसे कुछ खोजता हुआ देखकर पति ने पूछा, " क्या हुआ, कुछ चाहिए? "
" हाँ, देखो न माँ जी की प्लेट में रोटी खत्म हो गई है। वेटर को और लाने के लिए बोल दो।"
पति बोलता, उसके पहले ही ससुर जी ने आखिरी कौर मुँह में डालने के पहले जोर से आवाज लगाई, "भाई कब से बोला है रोटियों के लिए। बहुत सुस्त सर्विस है आपकी।"
वेटर भागा-भागा आया और एक रोटी रखकर चला गया। सासू माँ ने रोटी उठाकर ससुर जी की प्लेट में रख दी। ससुर जी फिर से खाने लगे। सासू माँ फिर प्रतीक्षा करने लगीं।
" तुम पूजा-पाठ करते हो क्या?" उसने पति से पूछा।
" नहीं मैं ज्यादा कुछ नहीं करता। लेकिन ये सब विवाह की रस्में हैं, तो बड़ों का मन रखने के लिए कर रहा हूँ।" पति ने धीमे स्वर में कहा।
" अरे, अभी तो आपको मेरे मायके चलकर वहाँ के बड़ों का मन भी रखना है।" उसने जोर देकर कहा।
इस बीच वेटर दूसरी रोटी मेज पर रखकर चला गया था। सासू माँ ने रोटी उठाई। फिर एक नजर अपने पति और बेटे की प्लेट पर डाली। दोनों की प्लेट में अभी रोटी थी। फिर अपनी प्लेट में रखकर खाना शुरू कर दिया।
" तुम्हें पता है मैं इतने धूमधाम से शादी नहीं करना चाहती थी। लेकिन सबने पहली बेटी है कहकर इतना कुछ कर डाला।" वह बोली।
" मैंने भी घरवालों को बहुत समझाया कि फिजूलखर्ची न करें। लेकिन किसी ने मेरी भी नहीं सुनी। सब बोले सबसे छोटा है। घर में आखिरी शादी है तो कोई कसर नहीं रहनी चाहिए।" पति बोला।
यह कहते-सुनते दोनों मुस्कराने लगे। दोनों ने अपने प्लेट की रोटी का आखिरी टुकड़ा मुँह में डाला। उसी समय वेटर एक और रोटी मेज पर रख गया। दोनों ने एक साथ रोटी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। पर मेहँदीवाला हाथ पहले पहुँच गया। उसने रोटी उठाई। उसके दो हिस्से किए। एक अपनी प्लेट में रखा, दूसरा पति की। दोनों फिर उसी सहजता से खाने और बतियाने में व्यस्त हो गए।
लेकिन अब तक सामने बैठे दो लोग असहज हो चले थे।
16/06/2018